29 September 2017

शिक्षा - संत --------- स्वामी केशवानंद

   राजस्थान  प्रान्त  के  सीकर  जिले   के  मगलूणा  गाँव  में  एक  साधारण   किसान  परिवार  में  केशवानंद  का  जन्म  हुआ  ,  उनके  बचपन  का  नाम  ' वीरमा '  था  l  अपने  बचपन  और  किशोरावस्था  में  उन्होंने  गाँव  के  जीवन  का  दरद   और  बदहाली  देखी  l  उस  समय  गाँव  के  लोग   जागीरदारों - सामंतों ,  राजाओं - नवाबों  और  विदेशी  शासकों  की  तिहरी  गुलामी  में  जकड़े  थे  l  वीरमा   की    किशोरावस्था  राजस्थान  के  रेतीले  टीलों  के  बीच  लगभग  नंगे बदन  सरदी - गरमी  सब  कुछ  सहते  हुए  बीती  l   ऐसे  में  माता - पिता  भी  चल  बसे   l   तब  उन्हें   आर्य  अनाथालय  में  सहारा  मिला   l   पढने  की  लगन  में  उन्होंने  साधुवेश  धारण  किया  l    पंजाब  के  गुरु  कुशलदास   और  अवधूत  हीरानंद  के  संपर्क  में  आकर  ' केशवानंद '  बन  गए   l     फिर  तो  भारत  भर  के  तीर्थ  स्थानों , मंदिरों , मठों , शहर , गाँव , शिक्षण - संस्थानों ---- में  घूम - घूम  कर  दुनिया  की  पुस्तकें  पढ़  डालीं   l
     गुरु - सेवा ,  शिक्षण   और  भ्रमण  के  इस  अनुभव  में   उन्होंने  जाना  कि ----  व्यक्ति  का  जितना  शिक्षित  होना  जरुरी  है  ,  उससे  कहीं  अधिक  आवश्यक  है   जीवन  जीने  की  कला  का  अभ्यास  l  इसी  प्रयास  में  उन्होंने  राजस्थान , हरियाणा , पंजाब    में  प्राथमिक पाठ शालाएं ,  चल - पुस्तकालय , वाचनालय  आदि  स्थापित  और  संचालित   किये  l  उनके  द्वारा  स्थापित  संस्थाओं  में  सबसे  ज्यादा  नाम  व  चर्चा  ' ग्रामोत्थान  विद्दापीठ  सांगरिया  की  हुई   l   
    अनगिनत  संस्थाओं  के  संस्थापक    स्वामी  केशवानंद  अखण्ड   ज्योति  पत्रिका  एवं  इसके  संचालक  परम  पूज्य   गुरुदेव  पं.  श्रीराम  शर्मा    आचार्य   से   प्रेरणा  ग्रहण  करते  थे  l  वह  कहते  थे   अखण्ड   ज्योति  पत्रिका  में    प्रकाशित  जीवन  जीने  की  कला  आज  के  युग  की  ब्रह्म   विद्दा    है   l   इस  पत्रिका  में   प्रकाशित   अंशों   का  जिक्र    करते  हुए  कहते  थे  ---- "  जिन्दगी  जीना  एक  कला  है  l  यह  कला  तो  वास्तव  में  मानसिक  वृति  है  ,  जिसके  आधार  पर    साधनों  की  कमी  में  भी   जिन्दगी  को  खूबसूरती  के  साथ   जिया  जा  सकता  है   l   जिन्दगी  को  हर  समय  हंसी - खुशी  के  साथ   अग्रसर  करते  रहना  ही  कला  है   l  उसे  रो - पीटकर  काटना  ही     कलाहीनता  है   l   जो  जीवन  की  अनुकूलता  और  प्रतिकूलता   के  परिवर्तनों  का    समभाव  से  उपभोग   कर  लेता  है  , वही  कुशल  कलाकार  कहा  जायेगा   l