मई 1958 की सुबह l विनोबा पंढरपुर ( महाराष्ट्र ) के विठोबा मन्दिर में अपने सहयोगियों के साथ विचार विमर्श कर रहे थे , तभी गेरुए वस्त्र पहने एक अधेड़ आयु की जर्मन महिला ल्युसियेन उनसे मिलने आई l वह पिछले दस वर्षों से घर - परिवार और देश त्याग कर साधु मंडली में इसलिए सम्मिलित हो गई थी कि सत्संग और भजन - कीर्तन के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त कर लूंगी l विनोबा से वार्तालाप के बाद उसे यह सत्य समझ में आया कि वह अब तक भ्रान्ति में थी , पलायनवादी होने का कलंक मिला -- ' न माया मिली न राम '
उसने विनोबा से पूछा ---- " आपने ईश्वर साक्षात्कार के लिए एकान्त साधना नही की , समाज - सेवा क्यों अपनाई ? "
विनोबा ने समझाया ---- " इस संसार का निर्माण ईश्वर ने किया l हर रचनाकार अपनी पूजा कराने की तुलना में इस बात को कहीं अधिक पसंद करता है कि उसकी रचना पूजित हो l मूर्तिकार प्रतिमा बना देता है l प्रशंसा उस प्रतिमा की सुन्दरता की होती है l मूर्तिकार की सुन्दरता का कोई बखान नहीं करता l इस संसार का निर्माण ईश्वर ने किया l इसलिए ईश्वर को प्रसन्नता तब होती है जब कोई उसकी सन्तान और विश्व उद्दान की उन्नति के लिए , उसकी सेवा के लिए तत्पर होता है और आगे बढ़ता है l प्रतिदान में अपने वरदान से ईश्वर भी उसे निहाल कर देता है l " उन्होंने कहा --- " सच्चा भक्त वह है जो समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का सही - सही पालन करे l जिसमे दूसरों के प्रति करुणा हो l समाज के प्रति तड़पन हो और वह स्वयं इस संसार रूपी बगिया को सुन्दर बनाने के लिए सक्रिय हो l आज कर्म की आवश्यकता है l "
यह बात संन्यासिनी की समझ में आ गई कि निर्माण की रक्षा में ही निर्माता की इच्छा निहित होती है l उसमे एक नया कर्तव्य - बोध जगा , उसने गेरुआ बाना त्याग दिया और समाज - सेवा में कूद पड़ी l और आजीवन बम्बई की गन्दी बस्तियों तथा आसपास के गांवों में अछूतोद्धार का काम करती रही l विनोबा भावे ने उसका नाम बदलकर हेमा बहिन रख दिया l इस सत्य को उसने दुनिया के सामने रखा --- निराकार ईश्वर का साकार स्वरुप दरिद्र नारायण , समाज - देवता की आराधना है l
उसने विनोबा से पूछा ---- " आपने ईश्वर साक्षात्कार के लिए एकान्त साधना नही की , समाज - सेवा क्यों अपनाई ? "
विनोबा ने समझाया ---- " इस संसार का निर्माण ईश्वर ने किया l हर रचनाकार अपनी पूजा कराने की तुलना में इस बात को कहीं अधिक पसंद करता है कि उसकी रचना पूजित हो l मूर्तिकार प्रतिमा बना देता है l प्रशंसा उस प्रतिमा की सुन्दरता की होती है l मूर्तिकार की सुन्दरता का कोई बखान नहीं करता l इस संसार का निर्माण ईश्वर ने किया l इसलिए ईश्वर को प्रसन्नता तब होती है जब कोई उसकी सन्तान और विश्व उद्दान की उन्नति के लिए , उसकी सेवा के लिए तत्पर होता है और आगे बढ़ता है l प्रतिदान में अपने वरदान से ईश्वर भी उसे निहाल कर देता है l " उन्होंने कहा --- " सच्चा भक्त वह है जो समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का सही - सही पालन करे l जिसमे दूसरों के प्रति करुणा हो l समाज के प्रति तड़पन हो और वह स्वयं इस संसार रूपी बगिया को सुन्दर बनाने के लिए सक्रिय हो l आज कर्म की आवश्यकता है l "
यह बात संन्यासिनी की समझ में आ गई कि निर्माण की रक्षा में ही निर्माता की इच्छा निहित होती है l उसमे एक नया कर्तव्य - बोध जगा , उसने गेरुआ बाना त्याग दिया और समाज - सेवा में कूद पड़ी l और आजीवन बम्बई की गन्दी बस्तियों तथा आसपास के गांवों में अछूतोद्धार का काम करती रही l विनोबा भावे ने उसका नाम बदलकर हेमा बहिन रख दिया l इस सत्य को उसने दुनिया के सामने रखा --- निराकार ईश्वर का साकार स्वरुप दरिद्र नारायण , समाज - देवता की आराधना है l
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