भगवत्कार्य ( सत्कर्म ) में कोई भी कर्ता नहीं , मात्र निमित्त ही होता है l अपने से कितना भी बड़ा एवं विशिष्ट कार्य संपन्न हो जाने पर भी यदि स्वयं को निमित्त मात्र ही माना जाये , तो अहंकार नहीं होता | '
एक बार भगवान विष्णु वाहन गरुड़ को अहंकार हो गया कि उनकी सेवा के बिना विष्णु एक डग भी नहीं चल सकते , विष्णु मेरे अधीन हैं , कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता l इस अहंकार में उन्होंने शिव के प्रमुख सर्प मणि को कैद कर लिया | जब शाम हुई और मणि को न पाकर शिवजी ने नंदी को कहा कि विष्णु लोक जाकर मणि को गरुड़ से मुक्त करा लाओ |
भगवान विष्णु ने नन्दी से शिव का सन्देश सुनकर गरुड़ को बुलाया और मणि को मुक्त करने का आदेश दिया l अहंकार के आवेश में गरुड़ ने कहा ---- " मैं मणि को आज मुक्त नहीं करूँगा l भगवन मैंने आपकी बहुत सहायता की है , आपकी हर विजयश्री के लिए मैं ही निमित्त हूँ , आपकी सभी यात्राएँ मेरे ही कारण संपन्न हुई हैं | "
भगवन विष्णु सोचने लगे कि गरुड़ को अहंकार हो गया , यदि यह अहंकार दूर न हुआ तो इसका अनिष्ट हो जायेगा l
भगवान विष्णु बोले ---- " गरुड़ हमें तुम पर गर्व है , यह सच है कि कई विजय हमें तुम्हारे ही कारण मिली हैं l तुमने हमारे भारी- भरकम शरीर को योजनों दूरी तक ढोया है l " ऐसे बातों - ही - बातों में भगवान ने अपने दाहिने पैर का अंगूठा गरुड़ पर रख दिया l
जैसे ही अंगूठा रखा , गरुड़ बोझ के मारे तिलमिलाने लगा , उसे लगा कि इस बोझ से प्राण ही निकल जायेंगे | क्षण भर तो वह चुप रहा , पर जब सहन नहीं हुआ तो बोला ---- " भगवन ! जरा अंगूठा ------ मैं दबकर पिसा जा रहा हूँ l "
भगवान बोले ---- " क्यों , अंगूठे से क्या हुआ ? तुमने तो हमारा शरीर कोसों ढोया है l "
गरुड़ अब तक सारी बात समझ चुके थे l वह धीरे - धीरे बोले ---- भगवन मुझे क्षमा करें l मुझे अहंकार हो गया था l आपने मेरा अहंकार नष्ट कर मुझ पर उपकार किया l मैं मणि को अभी मुक्त कर दूंगा , मुझे क्षमा कर दें l " भगवान ने अंगूठा हटाया तो गरुड़ की रूकती साँसे चलने लगी l उन्होंने इस सत्य को गहराई से अनुभव किया कि --- ' भगवत्कार्य में कोई भी कर्ता नहीं
होता ,मात्र निमित्त ही होता है l '
एक बार भगवान विष्णु वाहन गरुड़ को अहंकार हो गया कि उनकी सेवा के बिना विष्णु एक डग भी नहीं चल सकते , विष्णु मेरे अधीन हैं , कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता l इस अहंकार में उन्होंने शिव के प्रमुख सर्प मणि को कैद कर लिया | जब शाम हुई और मणि को न पाकर शिवजी ने नंदी को कहा कि विष्णु लोक जाकर मणि को गरुड़ से मुक्त करा लाओ |
भगवान विष्णु ने नन्दी से शिव का सन्देश सुनकर गरुड़ को बुलाया और मणि को मुक्त करने का आदेश दिया l अहंकार के आवेश में गरुड़ ने कहा ---- " मैं मणि को आज मुक्त नहीं करूँगा l भगवन मैंने आपकी बहुत सहायता की है , आपकी हर विजयश्री के लिए मैं ही निमित्त हूँ , आपकी सभी यात्राएँ मेरे ही कारण संपन्न हुई हैं | "
भगवन विष्णु सोचने लगे कि गरुड़ को अहंकार हो गया , यदि यह अहंकार दूर न हुआ तो इसका अनिष्ट हो जायेगा l
भगवान विष्णु बोले ---- " गरुड़ हमें तुम पर गर्व है , यह सच है कि कई विजय हमें तुम्हारे ही कारण मिली हैं l तुमने हमारे भारी- भरकम शरीर को योजनों दूरी तक ढोया है l " ऐसे बातों - ही - बातों में भगवान ने अपने दाहिने पैर का अंगूठा गरुड़ पर रख दिया l
जैसे ही अंगूठा रखा , गरुड़ बोझ के मारे तिलमिलाने लगा , उसे लगा कि इस बोझ से प्राण ही निकल जायेंगे | क्षण भर तो वह चुप रहा , पर जब सहन नहीं हुआ तो बोला ---- " भगवन ! जरा अंगूठा ------ मैं दबकर पिसा जा रहा हूँ l "
भगवान बोले ---- " क्यों , अंगूठे से क्या हुआ ? तुमने तो हमारा शरीर कोसों ढोया है l "
गरुड़ अब तक सारी बात समझ चुके थे l वह धीरे - धीरे बोले ---- भगवन मुझे क्षमा करें l मुझे अहंकार हो गया था l आपने मेरा अहंकार नष्ट कर मुझ पर उपकार किया l मैं मणि को अभी मुक्त कर दूंगा , मुझे क्षमा कर दें l " भगवान ने अंगूठा हटाया तो गरुड़ की रूकती साँसे चलने लगी l उन्होंने इस सत्य को गहराई से अनुभव किया कि --- ' भगवत्कार्य में कोई भी कर्ता नहीं
होता ,मात्र निमित्त ही होता है l '
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