भजनों के माध्यम से उन्होंने लोगों को जीने की नई राह दिखाई, वह राह थी----'' स्वयं के स्वार्थ के साथ लोकमंगल का समन्वय करना ।' मनुष्यों के चंचल मन को मनोवैज्ञानिक ढंग से सत्प्रवृति में लगाकर समाज सुधार का उनका ढंग बहुत प्रभावशाली सिद्ध हुआ ।
पुनीत महाराज का जन्म गुजरात में हुआ था, उनका आरंभिक जीवन बहुत गरीबी व कष्ट में बीता धनाभाव के कारण उनके बच्चे की मृत्यु हो गई तो दाह-संस्कार के पैसे भी नहीं थे । रोग ने आ घेरा, क्षय की अंतिम स्टेज थी । इन दुःखों में उन्हें जीवन का नया अर्थ मिला, वे कह उठे----' हे ईश्वर ! तेरी जो चाह है वही मेरी चाह है, जो कुछ तू देगा वह लूँगा । सुख और दुःख अब मुझे व्याप्त नहीं होंगे । "
उनका परीक्षा का समय समाप्त हुआ और उन्हें 'तैयब एंड कंपनी ' में काम मिल गया, स्वास्थ्य भी सुधरने लगा । कष्टों से उपजे इस ज्ञान को कि---- सुख और दुःख को निरपेक्ष भाव से ग्रहण करना चाहिए, अधिक मिला तो उन्हें दो जिनके पास नहीं है और नहीं मिला तो दुःखी न हो कि हमें मिला नहीं, यही सच्ची साधना है ।
भजनों के माध्यम से उन्होंने जन-जन में इस विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया । वे कहीं भजन मंडली में दक्षिणा नहीं लेते थे । तथाकथित साधुओं की तरह उन्होंने समाज पर भार बनना पसंद न करके उनके सामने उदाहरण प्रस्तुत किया । नौकरी से जो वेतन मिलता था उसका थोड़ा सा भाग स्वयं के लिए खर्च करके शेष वे समाज के हित में लगा देते थे ।
उनके शिष्य ने उन्हें 10 बीघा जमीन भेंट में दी, उन्होंने उसका ट्रस्ट बना दिया तथ उस पर किसी उत्तराधिकारी का हक न रखा । इस भूमि पर ' पुनीत सेवाश्रम ' की स्थापना हुई ।
उनका जीवन एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो अपने को दीन-हीनों का साथी समझता रहा, उन्होंने स्वयं को भावना के माध्यम से एक बड़ी शक्ति के साथ जोड़ दिया जिसके आश्चर्यजनक परिणाम हुए तथा लोकजीवन के लिए चिरस्थायी कार्य कर गये ।
पुनीत महाराज का जन्म गुजरात में हुआ था, उनका आरंभिक जीवन बहुत गरीबी व कष्ट में बीता धनाभाव के कारण उनके बच्चे की मृत्यु हो गई तो दाह-संस्कार के पैसे भी नहीं थे । रोग ने आ घेरा, क्षय की अंतिम स्टेज थी । इन दुःखों में उन्हें जीवन का नया अर्थ मिला, वे कह उठे----' हे ईश्वर ! तेरी जो चाह है वही मेरी चाह है, जो कुछ तू देगा वह लूँगा । सुख और दुःख अब मुझे व्याप्त नहीं होंगे । "
उनका परीक्षा का समय समाप्त हुआ और उन्हें 'तैयब एंड कंपनी ' में काम मिल गया, स्वास्थ्य भी सुधरने लगा । कष्टों से उपजे इस ज्ञान को कि---- सुख और दुःख को निरपेक्ष भाव से ग्रहण करना चाहिए, अधिक मिला तो उन्हें दो जिनके पास नहीं है और नहीं मिला तो दुःखी न हो कि हमें मिला नहीं, यही सच्ची साधना है ।
भजनों के माध्यम से उन्होंने जन-जन में इस विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया । वे कहीं भजन मंडली में दक्षिणा नहीं लेते थे । तथाकथित साधुओं की तरह उन्होंने समाज पर भार बनना पसंद न करके उनके सामने उदाहरण प्रस्तुत किया । नौकरी से जो वेतन मिलता था उसका थोड़ा सा भाग स्वयं के लिए खर्च करके शेष वे समाज के हित में लगा देते थे ।
उनके शिष्य ने उन्हें 10 बीघा जमीन भेंट में दी, उन्होंने उसका ट्रस्ट बना दिया तथ उस पर किसी उत्तराधिकारी का हक न रखा । इस भूमि पर ' पुनीत सेवाश्रम ' की स्थापना हुई ।
उनका जीवन एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो अपने को दीन-हीनों का साथी समझता रहा, उन्होंने स्वयं को भावना के माध्यम से एक बड़ी शक्ति के साथ जोड़ दिया जिसके आश्चर्यजनक परिणाम हुए तथा लोकजीवन के लिए चिरस्थायी कार्य कर गये ।