' ईश्वर पर सदैव भरोसा रखना चाहिए, वह निश्चित रूप से हर भले काम का साथ देता है । ' ईश्वर के प्रति आस्तिकता ने ही डॉ किंग को कठिन से कठिन परिस्थितियों से जूझने का साहस प्रदान किया । ऐसे साहस के धनी डॉ किंग का जन्म अमेरिका की नीग्रो जाति में हुआ था ।
1954 तक इस जाति के लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार न था, अछूतों की तरह उनकी बस्तियाँ अलग होती थीं । जब नीग्रो जाति की इस पतित अवस्था को देखा तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ । उन्होंने इस जाति के लोगों में साहस और चेतना का ऐसा संचार किया कि वे इन सामाजिक बुराइयों का मुकाबला स्वयं अपनी शक्ति से कर सकें ।
डॉ किंग बचपन से ही थोरो के साहित्य का अध्ययन करते रहे थे । अब्राहम लिंकन के वे शब्द भी उन्हें अच्छी तरह याद थे कि अमेरिका आधा स्वतंत्र और आधा परतंत्र रहकर अपने अस्तित्व को सुरक्षित नहीं रख सकता । डॉ किंग ने जब गाँधी जी के साहित्य तथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को पढ़ा तो उनकी द्रष्टि बदल गई , उस समय वे आर्किमिडीज की तरह चिल्ला पड़े---' मिल गया-मिल गया । उन्हें सिद्धांत ईसा से और मार्ग गाँधी से मिल गया ।
ईसा, बुद्ध और गाँधी की तरह उन्हें विश्वास था कि घ्रणा को घ्रणा के द्वारा नहीं मिटाया जा सकता, प्रेम की शक्ति से ही शत्रु मित्र बन सकते हैं ।
1955 में जब डॉ किंग ने नीग्रो लोगों से बसों का बहिष्कार करने को कहा तो अन्य लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसा कभी हो सकता है लेकिन जब 50 हजार नीग्रो लोगों ने बसों में बैठना बंद कर दिया तो बस कम्पनी का दिवाला निकलने लगा । यही वह प्रमुख घटना थी जिसने संसार का ध्यान डॉ किंग की ओर आकर्षित किया । उन्होंने सारा जीवन ईसा मसीह के सन्देश को सारी मानव जाति तक पहुँचाने में लगाया । डॉ किंग ने संसार की विभिन्न जातियों के मध्य जो
एकसूत्रता को जन्म दिया वह आज के युग का अपने ढंग का अनोखा कार्य कहा जायेगा । 1964 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया । डॉ किंग कहा करते थे कि 80 वर्ष व्यर्थ जीने की अपेक्षा आधी जिंदगी उद्देश्यपूर्ण ढंग से जीना कहीं अच्छा है । वह अपने अनुयायियों को सदैव इस बात के लिए प्रेरित करते रहते थे कि हमें अपने व्यक्तिगत आचरण में आध्यात्मिक मूल्यों और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को स्थान देना चाहिए । वह एक प्रश्न सभी से पूछा करते थे कि
अपनी आत्मा अथवा चरित्र को दाँव पर लगाकर यदि सारे संसार की दौलत हमारे सामने रख दी जाये तो उसका क्या उपयोग होगा ? वास्तव में यह प्रश्न सम्पूर्ण मानव जाति से है ।
1954 तक इस जाति के लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार न था, अछूतों की तरह उनकी बस्तियाँ अलग होती थीं । जब नीग्रो जाति की इस पतित अवस्था को देखा तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ । उन्होंने इस जाति के लोगों में साहस और चेतना का ऐसा संचार किया कि वे इन सामाजिक बुराइयों का मुकाबला स्वयं अपनी शक्ति से कर सकें ।
डॉ किंग बचपन से ही थोरो के साहित्य का अध्ययन करते रहे थे । अब्राहम लिंकन के वे शब्द भी उन्हें अच्छी तरह याद थे कि अमेरिका आधा स्वतंत्र और आधा परतंत्र रहकर अपने अस्तित्व को सुरक्षित नहीं रख सकता । डॉ किंग ने जब गाँधी जी के साहित्य तथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को पढ़ा तो उनकी द्रष्टि बदल गई , उस समय वे आर्किमिडीज की तरह चिल्ला पड़े---' मिल गया-मिल गया । उन्हें सिद्धांत ईसा से और मार्ग गाँधी से मिल गया ।
ईसा, बुद्ध और गाँधी की तरह उन्हें विश्वास था कि घ्रणा को घ्रणा के द्वारा नहीं मिटाया जा सकता, प्रेम की शक्ति से ही शत्रु मित्र बन सकते हैं ।
1955 में जब डॉ किंग ने नीग्रो लोगों से बसों का बहिष्कार करने को कहा तो अन्य लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसा कभी हो सकता है लेकिन जब 50 हजार नीग्रो लोगों ने बसों में बैठना बंद कर दिया तो बस कम्पनी का दिवाला निकलने लगा । यही वह प्रमुख घटना थी जिसने संसार का ध्यान डॉ किंग की ओर आकर्षित किया । उन्होंने सारा जीवन ईसा मसीह के सन्देश को सारी मानव जाति तक पहुँचाने में लगाया । डॉ किंग ने संसार की विभिन्न जातियों के मध्य जो
एकसूत्रता को जन्म दिया वह आज के युग का अपने ढंग का अनोखा कार्य कहा जायेगा । 1964 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया । डॉ किंग कहा करते थे कि 80 वर्ष व्यर्थ जीने की अपेक्षा आधी जिंदगी उद्देश्यपूर्ण ढंग से जीना कहीं अच्छा है । वह अपने अनुयायियों को सदैव इस बात के लिए प्रेरित करते रहते थे कि हमें अपने व्यक्तिगत आचरण में आध्यात्मिक मूल्यों और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को स्थान देना चाहिए । वह एक प्रश्न सभी से पूछा करते थे कि
अपनी आत्मा अथवा चरित्र को दाँव पर लगाकर यदि सारे संसार की दौलत हमारे सामने रख दी जाये तो उसका क्या उपयोग होगा ? वास्तव में यह प्रश्न सम्पूर्ण मानव जाति से है ।