जर्मन सेना की साठवीं मोटराइज्ड डिवीज़न का कप्तान आटमर कोहलर ग्यारह वर्ष की रशियन कैद से मुक्त होकर स्वदेश लौट आया । यह बंदी जीवन उनके लिए एक अभिनव प्रयोग और आत्मतुष्टि का पाथेय बन गया था । रूस के भयावह बंदी शिविरों में डॉ कोहलर ने पुराने रेजर, ब्लेड, टूटी-फूटी कैंची से हाथ-पैर व शरीर के अन्य अंगों के छोटे-बड़े हजारों आपरेशन किये । बेहोशी की दवा के अभाव में पुरानी लकड़ी के शिकंजे की पद्धति अपनायी गई, मृतकों के शरीर से उतारे हुए कपड़ों को उबालकर, फाड़कर उनकी पट्टी बनाई गई, घावों को सीने के लिए उपयुक्त धागे के अभाव में उन्होंने मोची के धागे से काम लिया । इस प्रकार उन्होंने इस ग्यारह वर्ष के बन्दी काल में 20000 से भी अधिक लोगों को रोगमुक्त किया तथा हजारों लोगों के आपरेशन किये ।
ऐसे उपकरणों के साथ उनके पास थी मानवीय संवेदना, तीव्र बुद्धि और ईश्वर में अगाध निष्ठा इन्ही साधनों से एक व्यक्ति की रीढ़ की हड्डी का सफल आपरेशन किया । एक व्यक्ति की टांग का आपरेशन किया, बेहोशी की दवा न होने से टेबल से बांधकर उसका आपरेशन किया । एक-एक करके उन्हें तेरह कैम्प बदलने पड़े, चिकित्सा की कोई सुविधाएं बंदियों को उपलब्ध नहीं थीं, हर स्थान पर उन्होंने इसी तरह के उपकरण से इलाज किया ।
इन ग्यारह वर्ष के बंदी जीवन में उन्हें एक भी दिन किसी ने हताश, उदास नहीं देखा , वे बाइबिल को सदा अपने पास रखते थे और सबके साथ मिलकर प्रार्थना करते थे , उन्होंने बन्दी गृह
के निराश लोगों में ईश्वर के प्रति पुन: विश्वास उत्पन्न किया ।
जर्मन और रुसी का वे भेदभाव नहीं करते थे ।
एक रुसी सैनिक की पत्नी चार दिनों से प्रसव वेदना सह रही थी, यदि थोड़ी देर और हो जाती तो उसकी मृत्यु निश्चित थी, डॉ. कोहलर के प्रयास से माँ व बच्चा दोनों की जान बच गई । उस रुसी सैनिक ने डॉ. कोहलर से पूछा--- " हम तुम्हे बंदी बनाये हैं, तुम्हारे साथ शत्रु-का सा व्यवहार करते हैं फिर तुमने मेरी पत्नी के प्राण क्यों बचाये ? " डॉ. ने कहा--- "क्योंकि तुम्हारी पत्नी भी मनुष्य है । मनुष्य ही मनुष्य की सहायता नहीं करेगा तो और कौन करेगा । "
सबसे कठिन आपरेशन उन्होंने एक बन्दी का किया जिसके सिर व हाथ बुरी तरह कुचल गये थे । रुसी सैनिकों ने उसे मरने के लिए अकेला छोड़ने का आदेश दिया, लेकिन डॉ. कोहलर नहीं माने उन्होंने अपने हाथ के बने चाकू से उसकी खोपड़ी को उधेड़ा फिर खोपड़ी में छेद करके उसमे घुसे हड्डी के टुकड़ों को निकाला और दर्जी के काम आने वाले धागे से चमड़ी में टांके लगाये । पन्द्रह दिन वह अचेत रहा फिर कुछ महीनो में पूरी तरह ठीक हों गया । रूस के बंदी गृह में रहते हुए भी उन्होंने अपने बंदी जीवन में 3000 से भी अधिक रूसियों की चिकित्सा की थी ।
ग्यारह वर्ष बाद समझौते के अनुसार रुसी सरकार ने उन्हें उनके देश जर्मनी भेज दिया । मानवता की अनुपम सेवा और युद्धबंदियों में आत्मविश्वास बनाये रखने के कारण उनका पश्चिम जर्मनी में भव्य स्वागत किया गया, उन्हें ग्रेट क्रास प्रदान किया गया । तीन दिन में ही उनके पास दो हजार से अधिक अभिनन्दन पत्र आये, जिनके भेजने वाले व्यक्ति उनके युद्ध बंदी काल के मरीज थे । सब में एक ही बात थी ' आपने हमारी प्राण रक्षा की है ' ।
पश्चिम जर्मनी सरकार ने उन्हें मुख्य सर्जन का पद दिया । उनकी कहानी चिकित्सा क्षेत्र में अनूठी मानी गई है ।
ऐसे उपकरणों के साथ उनके पास थी मानवीय संवेदना, तीव्र बुद्धि और ईश्वर में अगाध निष्ठा इन्ही साधनों से एक व्यक्ति की रीढ़ की हड्डी का सफल आपरेशन किया । एक व्यक्ति की टांग का आपरेशन किया, बेहोशी की दवा न होने से टेबल से बांधकर उसका आपरेशन किया । एक-एक करके उन्हें तेरह कैम्प बदलने पड़े, चिकित्सा की कोई सुविधाएं बंदियों को उपलब्ध नहीं थीं, हर स्थान पर उन्होंने इसी तरह के उपकरण से इलाज किया ।
इन ग्यारह वर्ष के बंदी जीवन में उन्हें एक भी दिन किसी ने हताश, उदास नहीं देखा , वे बाइबिल को सदा अपने पास रखते थे और सबके साथ मिलकर प्रार्थना करते थे , उन्होंने बन्दी गृह
के निराश लोगों में ईश्वर के प्रति पुन: विश्वास उत्पन्न किया ।
जर्मन और रुसी का वे भेदभाव नहीं करते थे ।
एक रुसी सैनिक की पत्नी चार दिनों से प्रसव वेदना सह रही थी, यदि थोड़ी देर और हो जाती तो उसकी मृत्यु निश्चित थी, डॉ. कोहलर के प्रयास से माँ व बच्चा दोनों की जान बच गई । उस रुसी सैनिक ने डॉ. कोहलर से पूछा--- " हम तुम्हे बंदी बनाये हैं, तुम्हारे साथ शत्रु-का सा व्यवहार करते हैं फिर तुमने मेरी पत्नी के प्राण क्यों बचाये ? " डॉ. ने कहा--- "क्योंकि तुम्हारी पत्नी भी मनुष्य है । मनुष्य ही मनुष्य की सहायता नहीं करेगा तो और कौन करेगा । "
सबसे कठिन आपरेशन उन्होंने एक बन्दी का किया जिसके सिर व हाथ बुरी तरह कुचल गये थे । रुसी सैनिकों ने उसे मरने के लिए अकेला छोड़ने का आदेश दिया, लेकिन डॉ. कोहलर नहीं माने उन्होंने अपने हाथ के बने चाकू से उसकी खोपड़ी को उधेड़ा फिर खोपड़ी में छेद करके उसमे घुसे हड्डी के टुकड़ों को निकाला और दर्जी के काम आने वाले धागे से चमड़ी में टांके लगाये । पन्द्रह दिन वह अचेत रहा फिर कुछ महीनो में पूरी तरह ठीक हों गया । रूस के बंदी गृह में रहते हुए भी उन्होंने अपने बंदी जीवन में 3000 से भी अधिक रूसियों की चिकित्सा की थी ।
ग्यारह वर्ष बाद समझौते के अनुसार रुसी सरकार ने उन्हें उनके देश जर्मनी भेज दिया । मानवता की अनुपम सेवा और युद्धबंदियों में आत्मविश्वास बनाये रखने के कारण उनका पश्चिम जर्मनी में भव्य स्वागत किया गया, उन्हें ग्रेट क्रास प्रदान किया गया । तीन दिन में ही उनके पास दो हजार से अधिक अभिनन्दन पत्र आये, जिनके भेजने वाले व्यक्ति उनके युद्ध बंदी काल के मरीज थे । सब में एक ही बात थी ' आपने हमारी प्राण रक्षा की है ' ।
पश्चिम जर्मनी सरकार ने उन्हें मुख्य सर्जन का पद दिया । उनकी कहानी चिकित्सा क्षेत्र में अनूठी मानी गई है ।
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