' उच्च पदों पर बहुत लोग पहुँचते हैं , लेकिन जिनका जीवन एक आदर्श से प्रेरित होता है , उनके जीवन की चमक पूरे समाज को रोशनी देती है | उच्च भावनाएं सामान्य कार्य को भी पूजा और यज्ञ की तरह पुनीत बना देती हैं , जबकि सामान्य भावनाएं पुण्य कार्यों को भी उजड़ा रूप दे देती हैं इसलिये कहा गया है ---- ' धर्म-भावना जीवन-उद्देश्य को सार्थकता प्रदान करती है | '
अमेरिका के तुलसा शहर में एक प्रयोगशाला है - लेडरले लेबोरेट्री | उस प्रयोगशाला में क्षय रोग के एक टीके का आविष्कार हुआ , जिसने लाखों रोगियों की जान बचाई | इस प्रयोगशाला के कंपाउंड में एक भारतीय की प्रतिमा लगी है | उस प्रतिमा के नीचे लिखा है -- " विज्ञान केवल आयु बढ़ाता है , धर्म उसे गहरा करता है | "
यह पंक्ति उस वैज्ञानिक प्रतिभा का परिचय देती है जो अपनी निष्ठा , आस्था और ईश्वर विश्वास के सहारे चेन्नई की दारुण गरीबी से निकलकर लेडरले लेबोरेट्री तक पहुंचे |
उस वैज्ञानिक का नाम है - चेल्लप्रगद सुब्बाराव |
एक घटना ने उनके जीवन की दिशाधारा बदल दी | उनके छोटे भाई को क्षय रोग हो गया | उसे तिल-तिलकर मरते देखकर वे बहुत दुखी हुए | व्यथा-वेदना के उन्ही क्षणों में उन्होंने निश्चय किया कि जिस रोग ने उनके भाई को छीना है , उससे लड़ने के लिये , उस रोग की औषधि तैयार करने के लिये वे अपना जीवन समर्पित कर देंगे |
उन्ही दिनों उन्होंने वाल्मीकि रामायण पढ़ी और रामकथा से यह प्रभाव ग्रहण किया कि किसी भी अनिष्ट या आसुरी आतंक से लड़ने के लिये साधनों की उतनी जरुरत नहीं पड़ती है , जितनी संकल्प और अदम्य उत्साह की | क्षय रोग रूपी रावण से लड़ने के लिये उन्होंने अध्ययन किया और अपनी लगन व मेहनत से 1942 में उन्होंने प्रयोगशाला में शोध विभाग के प्रमुख का दायित्व संभाला | चार वर्ष के कठिन प्रयोगों के बाद उनकी खोज पूरी हुई | वह औषधि तैयार होकर सामने आ गई , जिसने बाद के वर्षों में लाखों लोगों को असमय मृत्यु के मुख में जाने से बचा लिया | जब इस खोज का श्रेय देने की बारी आई तो डॉ . राव बड़ी विनम्रता से पीछे हट गये | उन्होंने कहा , इस खोज का श्रेय मुझे नहीं मेरे साथियों को मिलना चाहिये जिन्होंने दिन-रात एक कर खोज पूरी की |
उनका कहना था कि घोर निराशा के क्षणों में वाल्मीकि रामायण से ही प्रेरणा मिली , इस ग्रंथ के प्रकाश से ही उनके जीवन का पथ प्रशस्त हुआ |
लगन और समर्पण की भावना ही व्यक्ति को उच्च उद्देश्य की प्राप्ति कराती हैं |
अमेरिका के तुलसा शहर में एक प्रयोगशाला है - लेडरले लेबोरेट्री | उस प्रयोगशाला में क्षय रोग के एक टीके का आविष्कार हुआ , जिसने लाखों रोगियों की जान बचाई | इस प्रयोगशाला के कंपाउंड में एक भारतीय की प्रतिमा लगी है | उस प्रतिमा के नीचे लिखा है -- " विज्ञान केवल आयु बढ़ाता है , धर्म उसे गहरा करता है | "
यह पंक्ति उस वैज्ञानिक प्रतिभा का परिचय देती है जो अपनी निष्ठा , आस्था और ईश्वर विश्वास के सहारे चेन्नई की दारुण गरीबी से निकलकर लेडरले लेबोरेट्री तक पहुंचे |
उस वैज्ञानिक का नाम है - चेल्लप्रगद सुब्बाराव |
एक घटना ने उनके जीवन की दिशाधारा बदल दी | उनके छोटे भाई को क्षय रोग हो गया | उसे तिल-तिलकर मरते देखकर वे बहुत दुखी हुए | व्यथा-वेदना के उन्ही क्षणों में उन्होंने निश्चय किया कि जिस रोग ने उनके भाई को छीना है , उससे लड़ने के लिये , उस रोग की औषधि तैयार करने के लिये वे अपना जीवन समर्पित कर देंगे |
उन्ही दिनों उन्होंने वाल्मीकि रामायण पढ़ी और रामकथा से यह प्रभाव ग्रहण किया कि किसी भी अनिष्ट या आसुरी आतंक से लड़ने के लिये साधनों की उतनी जरुरत नहीं पड़ती है , जितनी संकल्प और अदम्य उत्साह की | क्षय रोग रूपी रावण से लड़ने के लिये उन्होंने अध्ययन किया और अपनी लगन व मेहनत से 1942 में उन्होंने प्रयोगशाला में शोध विभाग के प्रमुख का दायित्व संभाला | चार वर्ष के कठिन प्रयोगों के बाद उनकी खोज पूरी हुई | वह औषधि तैयार होकर सामने आ गई , जिसने बाद के वर्षों में लाखों लोगों को असमय मृत्यु के मुख में जाने से बचा लिया | जब इस खोज का श्रेय देने की बारी आई तो डॉ . राव बड़ी विनम्रता से पीछे हट गये | उन्होंने कहा , इस खोज का श्रेय मुझे नहीं मेरे साथियों को मिलना चाहिये जिन्होंने दिन-रात एक कर खोज पूरी की |
उनका कहना था कि घोर निराशा के क्षणों में वाल्मीकि रामायण से ही प्रेरणा मिली , इस ग्रंथ के प्रकाश से ही उनके जीवन का पथ प्रशस्त हुआ |
लगन और समर्पण की भावना ही व्यक्ति को उच्च उद्देश्य की प्राप्ति कराती हैं |