' उपासना का अर्थ है - व्यक्तित्व का परिष्कार | '
आज का मानव ज्ञान व मानव अस्तित्व सुदूर अंतरिक्ष में अपने पाँव जमा रहा है | बाह्य अंतरिक्ष में प्रवेश निश्चित रूप से प्रशंसनीय एवं साहसिक कार्य है , लेकिन आंतरिक अंतरिक्ष में प्रवेश करना उससे कहीं अधिक साहसिक व प्रशंसनीय है | भीतर के कुविचारों को नियंत्रित कर अपने अंदर सद्गुणों को विकसित करना , अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत एवं प्रखर बनाना ही सच्ची पूजा है |
ऋषि प्रवर अपने शिष्यों को महर्षि वाल्मीकि के डाकू से ऋषि बनने की कथा सुना रहे थे | कथा सुन एक शिष्य के मन में प्रश्न उठा , वह पूछने लगा -" गुरुवर ! गुरुकुल की परंपरानुसार हम नित्यक्रम में वेदोक्त पूजा-उपासना का क्रम अपनाते हैं , तब भी कुछ आध्यात्मिक प्रगति होती दिखाई नहीं देती , तब केवल 'मरा-मरा ' का जाप करने से महर्षि वाल्मीकि को परमपद की प्राप्ति कैसे हुई ? "
ऋषि मुस्कराए और बोले - " वत्स ! श्रद्धा और आस्था अंत:करण की प्रवृतियां हैं , पर ये तभी फलदायी होती हैं , जब ये विधेयात्मक हों | अचल श्रद्धा व अडिग विश्वास हो तो मिट्टी की मूर्ति भी एकलव्य को विद्दा प्रदान कर सकती है | उपासना व कर्मकांड का महत्व तभी तक है , जब तक उसके साथ भावनात्मक परिष्कार की प्रक्रिया जुड़ी हो , अन्यथा सिर्फ दिखावे के प्रयोजन से कुछ सार्थक लाभ मिल पाना संभव नहीं है | "
आज का मानव ज्ञान व मानव अस्तित्व सुदूर अंतरिक्ष में अपने पाँव जमा रहा है | बाह्य अंतरिक्ष में प्रवेश निश्चित रूप से प्रशंसनीय एवं साहसिक कार्य है , लेकिन आंतरिक अंतरिक्ष में प्रवेश करना उससे कहीं अधिक साहसिक व प्रशंसनीय है | भीतर के कुविचारों को नियंत्रित कर अपने अंदर सद्गुणों को विकसित करना , अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत एवं प्रखर बनाना ही सच्ची पूजा है |
ऋषि प्रवर अपने शिष्यों को महर्षि वाल्मीकि के डाकू से ऋषि बनने की कथा सुना रहे थे | कथा सुन एक शिष्य के मन में प्रश्न उठा , वह पूछने लगा -" गुरुवर ! गुरुकुल की परंपरानुसार हम नित्यक्रम में वेदोक्त पूजा-उपासना का क्रम अपनाते हैं , तब भी कुछ आध्यात्मिक प्रगति होती दिखाई नहीं देती , तब केवल 'मरा-मरा ' का जाप करने से महर्षि वाल्मीकि को परमपद की प्राप्ति कैसे हुई ? "
ऋषि मुस्कराए और बोले - " वत्स ! श्रद्धा और आस्था अंत:करण की प्रवृतियां हैं , पर ये तभी फलदायी होती हैं , जब ये विधेयात्मक हों | अचल श्रद्धा व अडिग विश्वास हो तो मिट्टी की मूर्ति भी एकलव्य को विद्दा प्रदान कर सकती है | उपासना व कर्मकांड का महत्व तभी तक है , जब तक उसके साथ भावनात्मक परिष्कार की प्रक्रिया जुड़ी हो , अन्यथा सिर्फ दिखावे के प्रयोजन से कुछ सार्थक लाभ मिल पाना संभव नहीं है | "