' शरीर की संरचना क्रियाशीलता छोड़ दे तो मरण है । स्रष्टि की गतिविधियां रुक जायें तो प्रलय है , और मनुष्य कर्तव्य छोड़ दे तो उसका पतन है । '
कर्म को रसमय बनाने , उसे कर्मयोग बनाने के लिये व्यक्ति में निष्ठा और श्रद्धा के दोनों तत्व विद्दमान होने चाहिये । ' कार्य के प्रति समर्पण भाव ' से कार्य में आनंद की अनुभूति होती है ।
यहाँ प्रश्न यह नहीं कि कर्म छोटा है या बड़ा । महत्व इस बात का है कि उसे करते हुए कौन कितना , किस अनुपात में स्वयं को भुला पाता है ? इसी में उसका आनंद है ।
गोरा कुम्हार का प्रिय काम मटके बनाना था । इस कार्य में उसे बड़ा आनंद आता था । मटके बनाकर वह जिन लोगों को बेचता था , उनके प्रति उसके मन में अगाध श्रद्धा थी । उन्हें धोखा देने का उसके मन में तनिक भी विचार नहीं आता था । घड़े बनाने में उसकी द्रष्टि यह होती थी कि जो घड़े बने वे इतने मजबूत हों कि कई पीढ़ियाँ उसका प्रयोग करें । ऐसा करने से उसे असीम संतोष मिलता था । इस लिये जब वह घड़े की मिट्टी रूंद्ता , तो उसमे ऐसे खो जाता जैसे वैज्ञानिक अपने प्रयोग -परीक्षण में , गणितज्ञ अपने सवालों में और कवि अपने काव्य सृजन में ।
यह निष्ठा और श्रद्धा का परिणाम है । कार्य के प्रति निष्ठा हो और जिसके लिये यह किया जा रहा है उसके प्रति मन में श्रद्धा हो , तो प्रत्येक व्यक्ति किसी भी कार्य में आनंद व असीम संतोष प्राप्त कर सकता है ।
कर्म , कर्मयोग तभी बन पाता है जब कर्ता तल्लीनता पूर्वक कार्य में संलग्न हो , कार्य के प्रति उसकी गहरी अभिरुचि हो । तभी उसे कर्म में कुशलता भी प्राप्त हो सकती है और यह स्थिति प्राप्त करना ही योग है । इसी को गीता में ' योग: कर्मसु कौशलम ' कहकर अभिहित किया गया है ।
यही वह स्थिति है , जिसमे योग का आनंद और क्रिया का सत्परिणाम दोनों साथ -साथ प्राप्त होते हैं
कर्म को रसमय बनाने , उसे कर्मयोग बनाने के लिये व्यक्ति में निष्ठा और श्रद्धा के दोनों तत्व विद्दमान होने चाहिये । ' कार्य के प्रति समर्पण भाव ' से कार्य में आनंद की अनुभूति होती है ।
यहाँ प्रश्न यह नहीं कि कर्म छोटा है या बड़ा । महत्व इस बात का है कि उसे करते हुए कौन कितना , किस अनुपात में स्वयं को भुला पाता है ? इसी में उसका आनंद है ।
गोरा कुम्हार का प्रिय काम मटके बनाना था । इस कार्य में उसे बड़ा आनंद आता था । मटके बनाकर वह जिन लोगों को बेचता था , उनके प्रति उसके मन में अगाध श्रद्धा थी । उन्हें धोखा देने का उसके मन में तनिक भी विचार नहीं आता था । घड़े बनाने में उसकी द्रष्टि यह होती थी कि जो घड़े बने वे इतने मजबूत हों कि कई पीढ़ियाँ उसका प्रयोग करें । ऐसा करने से उसे असीम संतोष मिलता था । इस लिये जब वह घड़े की मिट्टी रूंद्ता , तो उसमे ऐसे खो जाता जैसे वैज्ञानिक अपने प्रयोग -परीक्षण में , गणितज्ञ अपने सवालों में और कवि अपने काव्य सृजन में ।
यह निष्ठा और श्रद्धा का परिणाम है । कार्य के प्रति निष्ठा हो और जिसके लिये यह किया जा रहा है उसके प्रति मन में श्रद्धा हो , तो प्रत्येक व्यक्ति किसी भी कार्य में आनंद व असीम संतोष प्राप्त कर सकता है ।
कर्म , कर्मयोग तभी बन पाता है जब कर्ता तल्लीनता पूर्वक कार्य में संलग्न हो , कार्य के प्रति उसकी गहरी अभिरुचि हो । तभी उसे कर्म में कुशलता भी प्राप्त हो सकती है और यह स्थिति प्राप्त करना ही योग है । इसी को गीता में ' योग: कर्मसु कौशलम ' कहकर अभिहित किया गया है ।
यही वह स्थिति है , जिसमे योग का आनंद और क्रिया का सत्परिणाम दोनों साथ -साथ प्राप्त होते हैं