जर्मनी से डॉक्टरेट कर राम मनोहर लोहिया भारत लौट रहे थे । पुस्तकों का उनके पास अपार संग्रह था । उन्हें पुस्तकों से बहुत प्यार था । नाजी सरकार के आदेश से सब पुस्तकें जब्त कर लीं गईं । मद्रास बंदरगाह पर वे खाली हाथ उतरे , एक पैसा भी जेब में नहीं था । वे सीधे ' हिंदू ' कार्यालय पहुँचे और सह -संपादक से बोले --" मैं जर्मनी से आ रहा हूँ । आपको दो लेख देना चाहता हूँ । "
संपादक ने पूछा --" कहाँ हैं लेख ? दीजिए । लोहिया जी ने कागज पेन मंगाया और सामने बैठकर एकाग्र मन से , जो दो लेख लिखे , उन्हें पढ़कर संपादक भी हैरान रह गया । लोहिया जी ने कहा --"मुझे कोलकता जाने का किराया चाहिये , इतना भर पारिश्रमिक दे दीजिये । " संपादक उनका जीवन भर के लिये मित्र बन गया । प्रतिभा के धनी इस महामानव को एक प्रबुद्ध समाजवादी माना जाता है ।
संपादक ने पूछा --" कहाँ हैं लेख ? दीजिए । लोहिया जी ने कागज पेन मंगाया और सामने बैठकर एकाग्र मन से , जो दो लेख लिखे , उन्हें पढ़कर संपादक भी हैरान रह गया । लोहिया जी ने कहा --"मुझे कोलकता जाने का किराया चाहिये , इतना भर पारिश्रमिक दे दीजिये । " संपादक उनका जीवन भर के लिये मित्र बन गया । प्रतिभा के धनी इस महामानव को एक प्रबुद्ध समाजवादी माना जाता है ।