समृद्ध तो अनेक व्यक्ति हुए हैं , पर इतिहास में स्वर्णाक्षरों में नाम तो उन्ही विरलों का अंकित है , जिनने अर्जित धन व सम्पदा मानवता की उन्नति व विकास के लिये समर्पित कर दी ।
ऐसे ही एक पुण्यात्मा का नाम है ' एंड्रयु कारनेगी ' । विश्व के दूसरे सर्वाधिक धनी व्यक्ति के नाम से विख्यात , एंड्रयु का जन्म स्काटलैंड के एक अत्यधिक गरीब परिवार में हुआ था । उनके पिता रुई के कारखाने में कारीगर थे और माँ जूतों की सिलाई कर जैसे -तैसे पूरे परिवार का गुजारा चलाती थीं । ऐसी विषम परिस्थिति में उनने पुस्तकें उधार लेकर अपनी शिक्षा पूरी की और अपनी मेहनत व कार्यकुशलता के बल पर टेलीग्राफ आपरेटर के पद पर पहुंचे ।
आगे के वर्षों में गहन परिश्रम व आगे बढ़ने की अदम्य इच्छा ने उन्हें दुनिया की विशालतम स्टील कंपनी का मालिक बनाया ।
प्रशंसा की बात यह है कि जब उनके समकालीन पूंजीपति धन को अनाप -शनाप कामों में उड़ाने में व्यस्त थे , तब एंड्रयु कारनेगी ने अपनी आधी से ज्यादा संपति इंग्लैंड ,अमेरिका , यूरोप व ऑस्ट्रेलिया में नि: शुल्क पुस्तकालयों व विश्व विद्दालयों को बनाने में समर्पित कर दी ।
उनका कहना था कि धन के अभाव में शिक्षा प्राप्त करने के लिये उन्हें जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा , वह नहीं चाहते कि उस कारण किसी और जरूरतमंद को निरक्षर रहना पड़े ।
भौतिकवाद की अंधड़ में फँसे लोगों के लिये उनका जीवन उस दीपक की तरह है , जो उनके शरीर छोड़ने के 100 वर्ष बाद भी अनेकों को राह दिखा रहा है ।
ऐसे ही एक पुण्यात्मा का नाम है ' एंड्रयु कारनेगी ' । विश्व के दूसरे सर्वाधिक धनी व्यक्ति के नाम से विख्यात , एंड्रयु का जन्म स्काटलैंड के एक अत्यधिक गरीब परिवार में हुआ था । उनके पिता रुई के कारखाने में कारीगर थे और माँ जूतों की सिलाई कर जैसे -तैसे पूरे परिवार का गुजारा चलाती थीं । ऐसी विषम परिस्थिति में उनने पुस्तकें उधार लेकर अपनी शिक्षा पूरी की और अपनी मेहनत व कार्यकुशलता के बल पर टेलीग्राफ आपरेटर के पद पर पहुंचे ।
आगे के वर्षों में गहन परिश्रम व आगे बढ़ने की अदम्य इच्छा ने उन्हें दुनिया की विशालतम स्टील कंपनी का मालिक बनाया ।
प्रशंसा की बात यह है कि जब उनके समकालीन पूंजीपति धन को अनाप -शनाप कामों में उड़ाने में व्यस्त थे , तब एंड्रयु कारनेगी ने अपनी आधी से ज्यादा संपति इंग्लैंड ,अमेरिका , यूरोप व ऑस्ट्रेलिया में नि: शुल्क पुस्तकालयों व विश्व विद्दालयों को बनाने में समर्पित कर दी ।
उनका कहना था कि धन के अभाव में शिक्षा प्राप्त करने के लिये उन्हें जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा , वह नहीं चाहते कि उस कारण किसी और जरूरतमंद को निरक्षर रहना पड़े ।
भौतिकवाद की अंधड़ में फँसे लोगों के लिये उनका जीवन उस दीपक की तरह है , जो उनके शरीर छोड़ने के 100 वर्ष बाद भी अनेकों को राह दिखा रहा है ।