9 April 2013

IMANDARI KI KAMAI

कुशीनगर का राजा लोगों के पुण्य खरीदने के लिये प्रसिद्ध था | उसने तराजू लगा रखी थी | पुण्य बेचने वाले अपनी ईमानदारी की कमाई का विवरण लिखकर एक पलड़े में रखते ,उस कागज के अनुरूप तराजू स्वयं स्वर्ण मुद्रा देने की व्यवस्था कर देती |
जयनगर पर शत्रुओं का आक्रमण हुआ और वहां के राजा को पत्नी -बच्चों समेत रात्रि के अँधेरे में भागना पड़ा | पास में कुछ न था | रानी ने राजा से कहा -'आपने जीवन भर दान -पुण्य किया ,उसी में से थोड़े कुशीनगर नरेश को बेचकर धन प्राप्त कर लिया जाये | कुशीनगर तक कैसे पहुँचा जाये ?इसके लिये रानी ने उपाय किया कि वह ग्रामीणों के घर कार्य करेंगी ,राजा रोटी बनायेंगे | 'एक दिन राजा रोटी सेंक रहे थे ,उसी समय एक भिखारी आ गया ,राजा संकोच में थे ,तभी रानी आ गईं और कहा -"हम एक दिन और भूखे रह लेंगे यह रोटी भिखारी को दे दो | "राजा ने सारी रोटियां भिखारी को दे दीं और भूखे पेट वे लोग चल पड़े |
कुशीनगर पहुंचकर राजा ने अपना आने का कारण बताया | उत्तर मिला कि "धर्म -कांटे पर चले जाओ ,जो ईमानदारी की कमाई हो उसे तराजू के एक पलड़े में रख देना ,कांटा आपको उसी आधार पर स्वर्ण मुद्रा दे देगा | "जयनगर के राजा ने अपने अनेक पुण्य का विवरण तराजू में रखा ,पर उनसे कुछ न मिला | तब पुरोहित ने कहा -आपने जो परिश्रमपूर्वक कमाया और दान किया हो ,उसी का विवरण लिखें | तब राजा ने पिछले दिनों भिखारी को जो रोटियां दी थीं ,उसका ब्योरा लिखकर तराजू में रखा | दूसरे पलड़े में उसके बदले 1 0 0 (सौ )स्वर्ण मुद्राएँ आ गईं | पुरोहित ने कहा -"उसी दान का पुण्य फल होता है ,जो ईमानदारी से परिश्रमपूर्वक कमाया गया हो | "राजा को पुण्य का सही अर्थ ज्ञात हुआ और प्रतिफल भी मिला | 

PURE MEAL

आहार शुद्ध होने से अंत:कारण की शुद्धि होती है और इससे विवेक -बुद्धि ठीक काम करती है | आहार के संबंध में तीन शब्द कहे जाते हैं --हित ,मित और ऋत |
हितभोजी वह है ,जो स्वास्थ्य के अनुकूल एवं उपयोगी पदार्थ ग्रहण करता है | ऐसा व्यक्ति स्वाद के लिये नहीं बल्कि स्वास्थ्य के लिये खाता है | मितभोजी वह है ,जो थोड़ा खाता है ,जितना आवश्यक है उतना खाता है | आहार के संबंध में तीसरा सबसे महत्वपूर्ण शब्द है -ऋत | --ऋत का संबंध पवित्रता एवं चेतना की निर्मलता से है | ऋत का अर्थ भोजन में समाई भावनाओं में निहित है | भोजन बनाने वाले की भावनाएं क्या हैं ?इसलिये इस भोजन को वही खा सकता है ,जो मुफ्त की नहीं खाता | दूसरों का शोषण नहीं करता | दूसरों की आह ,दूसरों का हक छीनकर ,कष्ट देकर जो भोजन हमारे पेट में जाता है ,वह हमारी भावनाओं को विकृत बनाता है ,इसी के परिणामस्वरूप शारीरिक कष्ट और असाध्य रोग उत्पन्न होते हैं |
वस्तुत:आहार का मूल्यांकन चेतना के विकास का मूल्यांकन है | ऋत आहार का स्वरुप ही हमारी चेतना को विकृत या परिष्कृत करता है |