22 February 2013

चंद्रमा समुद्र से बोला ,"सारी नदियों का पानी आप अपने ही पेट में जमा करते हैं ,ऐसी तृष्णा भी किस काम की ?"समुद्र ने कहा ,"जिनके पास अनावश्यक है ,उनसे लेकर बादलों द्वारा सर्वत्र न पहुंचा दूं तो स्रष्टि का क्रम कैसे चले ?यदि सब एकत्र ही करते रहेगें तो औरों को मिलेगा कैसे ?मैं तो अपना कर्तव्य निभाता हूं | अन्य क्या करते हैं ,यह नहीं देखता | "
अति सर्वत्र वर्जयेत | मध्य मार्ग ही वरेण्य है |
अतिवाद हर द्रष्टि से हानिकारक माना गया है | बौद्ध जातक कथाओं में इस संबंध में एक कथा है | इस कथा के अनुसार -राजकुमार प्रश्रवन भगवान तथागत के पास जीवन साधना के लिये आये | भगवान तथागत आगंतुक साधक को निश्चित समय पर ही प्रबोध करते थे | यह समय हर साधक की आंतरिक स्थिति के अनुसार अलग -अलग होता था | राजकुमार प्रश्रवन को अभी प्रतीक्षा करनी थी | प्रभु की ओर से बुलावा न पाने के कारण प्रश्रवन ने अपनी मनोकल्पित विधि के अनुसार उपवास करना शुरु कर दिया | भूखे रहने एवं अस्त -व्यस्त दिनचर्या के कारण उनका स्वास्थ्य नष्ट होने लगा ,वे कई बीमारियों से घिर गये | तभी तथागत ने उन्हें बुलाया और मध्यम मार्ग का उपदेश देते हुए कहा ,"वत्स ,प्रश्रवन ,तुम तो कुशल वीणा वादक हो | बताओ वीणा से संगीत कब निकलता है ?प्रश्रवन ने उत्तर दिया ,"भगवन !जब वीणा के तार ठीक -ठीक कसे हों | यदि तार ज्यादा ढीले हुए या फिर ज्यादा कसे गये तो वीणा से संगीत की स्रष्टि नहीं हो सकती | "इस उत्तर पर तथागत मुस्कराए और कहा ,"वत्स !यही सत्य जीवन साधना के संबंध में भी है | जीवन संगीत न तो विलासिता में स्वरित होता है और न ही अति कठोरता में | इन दोनों स्थितियों में तो बस बीमारियां ही पनपती हैं | जीवन संगीत तो संयम के साज पर बजता है | संयम अति से उबरने एवं मध्यम में ठहरने का नाम है |