20 February 2013

एक धनपति था | वह नित्य ही एक घी का दीपक जलाकर मंदिर में रख आता था | एक निर्धन व्यक्ति था | वह सरसों के तेल का एक दीपक जलाकर नित्य अपनी अंधेरी गली में रख देता था | दोनों मरकर यमलोक पहुंचे तो धनपति को साधारण स्थिति की सुविधाएं दी गईं और निर्धन को उच्च श्रेणी की | यह व्यवस्था देखी तो धनपति ने धर्मराज से पूछा ,यह भेद क्यों ,जबकि मैं भगवान के मंदिर में दीपक जलाता था ,वह भी घी का | धर्मराज मुस्कराए ,बोले पुण्य की महता ,मूल्य के आधार पर नहीं ,कार्य की उपयोगिता के आधार पर होती है | मन्दिर तो पहले से ही प्रकाशवान था | उस निर्धन व्यक्ति ने ऐसे स्थान पर प्रकाश फैलाया ,जिससे हजारों व्यक्तियों ने लाभ उठाया | उसके दीपक की उपयोगिता अधिक थी |
मानव जीवन की सफलता इसी में है कि हम व्यक्तिगत लाभ और सुख का विचार छोड़ कर अपनी शक्तियों का उपयोग परोपकार के लिए करें | वृक्षों में प्रतिस्पर्धा होने लगी कि कौन बड़ा होकर आसमान छू लेता है ?सबने अपना -अपना प्रयत्न किया और ऊंचाई छू लेने की प्रतिस्पर्धा में ध्यान ही नहीं रहा कि विस्तार और फैलाव भी रूक सकता है और वही हुआ | ताड़ का वृक्ष बाजी जीत गया | वह ऊँचा तो हो गया और अहंकार में गर्दन उठाये खड़ा भी रहा | | किंतु विस्तार न होने से वह किसी के उपयोग का नहीं रहा | पक्षी को छाया नहीं फल लागे अति दूर | मनुष्य यश ,धन ,पद पाकर अहंकार तो बड़ा कर सकता है किंतु ताड़ के वृक्ष की तरह उपयोगिता घटा बैठता है | प्रकृति ने यदि हमें कोई विशेष शक्ति या योग्यता दी है तो उसे परमात्मा का वरदान समझ कर उसका उपयोग लोक -कल्याण के लिये करें | ऐसा करने वाले का अमंगल कभी नहीं होता |