28 February 2013

Gayatri Mantra...

गायत्री मंत्र सद्बुद्धि का मंत्र है | इसके जप से विवेक शक्ति जाग्रत होती है | गायत्री महामंत्र में 24  अक्षर हैं | इन 2 4 अक्षरों में -2 4 अवतार ,2 4 देवता ,2 4 ऋषि ,2 4 देवशक्तियाँ और 2 4 शक्ति स्रोत समाहित हैं | 24अक्षरों से आरम्भ होने वाले 24 श्लोकों को गायत्री रामायण कहा जाता है | ब्रह्म विज्ञान के 24 महाग्रंथ हैं -4 वेद ,4 उपवेद ,4 ब्राह्मण ,6 दर्शन ,6 वेदांग ,ये मिलकर 24 हैं |
ह्रदय से ब्रह्म रंध्र की दूरी 24 अंगुल है | सांख्य दर्शन के अनुसार यह सारा स्रष्टि क्रम 24 तत्वों के सहारे चलता है | मनुष्य शरीर के प्रधान अंग 24 हैं | एक दिन में भी 24 घंटे होते हैं | यह विश्व गायत्रीमय है |         
संसार की प्रत्येक वस्तु गुण -दोषमय है | मानव जीवन सुख -दुःख ,लाभ -हानि ,संपति और विपति के ताने -बाने से बना हुआ है | यह दोनों ही रात -दिन की तरह आते रहते हैं | संसार में बुराई और भलाई दोनों ही पर्याप्त मात्रा में हैं ,हम अपनी आन्तरिक स्थिति के अनुसार ही उसे पकड़ते हैं | यदि हम विवेकशील हैं तो संसार में जो कुछ श्रेष्ठ है उसे ही पकड़ने के लिये प्रयत्न करेंगे | जिस प्रकार हंस के सामने पानी और दूध मिलाकर रखा जाये तो वह केवल दूध ही ग्रहण करेगा और पानी छोड़ देगा ,मधुमक्खी फूलों में से केवल मिठास ही चूसती है शेष अन्य स्वादों का जो बहुत सा पदार्थ फूलों में भरा है उसे व्यर्थ समझकर छोड़ देती है | एक वैद्द्य पारद को लेकर बहुमूल्य रसायन बनाता है जिससे अनेक व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ करते हैं दूसरी ओर उसी पारद को खाकर कोई व्यक्ति आत्म -घात कर लेता है | परमात्मा ने गुण -दोषमय विश्व की इस प्रकार की अनोखी संरचना मनुष्य की विवेक की परीक्षा करने के लिये ही की है ताकि विवेक रूपी मणि के प्रकाश में हम गुणों को ,श्रेष्ठता को ग्रहण करें इसी में मानव जीवन की सार्थकता है |

27 February 2013

दूसरों के दोष देखने की आदत का अर्थ है -अपने अंतर्जगत में कचड़ा एकत्र करना |
तालाब में कमल खिला था | तट पर गुलाब खिला सौंदर्य बिखेर रहा था | दोनों ही बड़े सुंदर लग रहे थे | गुलाब के फूल ने कुछ अकड़ के साथ कहा -"कमल जी !तुम हो भी सुंदर और हो भी इतने बढ़े ,पर सुगंध इतनी कम क्यों ?देखो मेरी सुगंध मीलों दूर तक है "कमल हंसकर बोला -"भाई गुलाब !बुरा मत मानना ,हम दोनों का एक ही उद्देश्य है आप सुगंध बिखेरें और मैं सौंदर्य | दोनों मिलकर जो कार्य कर रहे हैं ,वह एक नहीं कर सकता "| गुलाब को लगा कि वास्तव में कमल सही कह रहा है | दोनों मिलकर सुगंध और सौंदर्य बिखेरने लगे |

26 February 2013

अपना दीपक आप बनो ,दूसरे दीपक के प्रकाश में चलने की कोशिश मत करो क्योंकि यह दूसरों का साथ अधिक समय तक न दे सकेंगे |
किसी चिड़िया ने चोंच में दबाकर पीपल का बीज नीम के तने में डाल दिया | थोड़ी मिट्टी ,थोड़ी नमी पाकर बीज उग आया और धीरे -धीरे नीम का आश्रय पाकर बढ़ने लगा | परावलंबी होने के कारण उसकी जड़ों को विकास के लिये न तो स्थान मिला और न ही डालें फैल सकीं | परिणाम स्वरूप वह थोड़ा ही बढकर रह गया | एक दिन उसे गुस्सा आया ,उसने नीम को डांट लगा दी -"दुष्ट !तू स्वयं तो आकाश छू रहा है और मुझे जरा भी बढ़ने नहीं देता है | देख मुझे भी बढ़ने दे ,नहीं तो तेरा नाश कर दूंगा "नीम हंसा और बोला -"मित्र !दूसरों की दया पर इतना ही विकास किया जा सकता है | इससे ज्यादा करना है तो अपनी नीव आप बनाओ ,अपने पैरों पर खड़े हो "| पीपल निरंतर नीम को कोसता रहा | एक दिन आंधी आई ,नीम का वृक्ष तो थोडा ही हिला था पर पीपल का पौधा धराशायी होकर मिट्टी चाटने लगा जो औरों के आश्रय में बढ़ने की आशा रखते हैं उनकी गति अंत में यही होती है |

25 February 2013

बुरी संगति से दुर्गति -'दुसंग भले ही कितना मधुर एवं सम्मोहक लगे ,किंतु उसका यथार्थ महाविष की भांति संघातक होता है | '
एक चित्रकार को किसी अत्यन्त सौम्य किशोर का चित्र बनाना था | ऐसे लड़के की तलाश में चित्रकार देश -विदेश में वर्षों तक मारा -मारा फिरा | बहुत कठिनाई से उसे एक ऐसा लड़का मिला ,जिसके रोम -रोम से सज्जनता टपकती थी | उसे सामने बिठाकर चित्र बनाया गया |चित्र बहुत ही सुंदर बना  | उसे बाजार में बहुत पसंद किया गया ,भारी बिक्री हुई | वर्षों बाद चित्रकार को सूझा कि वह एक अत्यंत बुरे और दुष्ट भाव -भंगिमा वाले अपराधी का चित्र बनायेगा | इसके लिये वह अपराधियों के अड्डे ,बंदीगृह और दुराचारियों के आवास स्थानों में भ्रमण करने लगा | अंत में एक बड़ी डरावनी शक्ल -सूरत का मनुष्य मिला | चित्रकार ने उसका चित्र बनाया और वह भी बहुत बिका | सज्जनता और दुष्टता की दो परस्पर विरोधी प्रतिकृतियों का यह अनोखा जोड़ा ,चित्र जगत में बहुत विख्यात हो गया | एक दिन वही दुष्ट ,दुराचारी चित्रकार से मिलने जा पहुंचा | चित्रकार ने उसका परिचय पूछा तो उसने कहा -"यह दोनों चित्र मेरे ही आपने बनाये हैं ,जब मैं बालक था तब सौम्य था और जब अधेड़ हुआ तो ऐसा भयंकर दुष्ट हो गया | चित्रकार ने पूछा -"तुम इस प्रकार कैसे इतने परिवर्तित हो गये ?"अधेड़ की आँखे बरसने लगीं | रोते हुए बोला -"बुरी संगति ने मेरी दुर्गति कर दी |

24 February 2013

'थोथा चना बाजे घना '-अहंकारी अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करने में लगे रहते हैं | उनपर उद्दंडता और दूसरों को नीचा दिखाने का भूत सदैव चढ़ा रहता है |
  1. एक नारियल का फल पेड़ के सर्वोच्च स्थान पर लगा था | उसने नदी के किनारे पड़े पत्थर को देखकर तिरस्कार पूर्वक कहा -"क्या जिंदगी है तुम्हारी भी | हर किसी की ठोकरें खाते हो ,जिस नदी के किनारे पड़े हो ,उसकी लहरें ही तुम्हे टक्कर मारती हैं | अपमान की भी हद होती है ,पर तुम तो बेशरम हो ,तुम्हे क्या !मुझे देखो ,मैं स्वाभिमान पूर्वक उन्नत स्थिति में बैठा मौज कर रहा हूं | यहां से सारी दुनिया का नजारा देखता हूं | तुम तो लगता है घिसते -घिसते ही मर जाओगे | "पत्थर ने चुपचाप बात सुन ली ,कुछ नहीं कहा | पत्थर घिसता रहा ,उसकी साधना अनवरत चलती रही | एक पुजारी उधर से निकले ,उन्होंने गोल आकार का वही पत्थर देखा और यह कहकर कि ये तो शालग्राम हैं ,उन्हें मंदिर में श्रद्धा के साथ स्थापित कर दिया | शाम को तेज आंधी चली ,घमंडी नारियल हवा के थपेड़ों से दूर जाकर गिरा और दो टुकड़े हो गया | किसी भक्त ने उसे लाकर शालग्राम के पास श्रद्धा सहित चढ़ा दिया | नारियल टूट तो गया पर उसका अहंकार गया नहीं था | नारियल की मुखमुद्रा देख शालग्राम बोल उठा -"नारियल !देखा ,घिसने का परिणाम | हम तो परिमार्जित होते -होते प्रभु के चरणों में आ गये ,यहां हमारी पूजा होती है | घमंड में मतवालों की दुर्गति ही होती है | नारियल आँसू बहा रहा था |

22 February 2013

चंद्रमा समुद्र से बोला ,"सारी नदियों का पानी आप अपने ही पेट में जमा करते हैं ,ऐसी तृष्णा भी किस काम की ?"समुद्र ने कहा ,"जिनके पास अनावश्यक है ,उनसे लेकर बादलों द्वारा सर्वत्र न पहुंचा दूं तो स्रष्टि का क्रम कैसे चले ?यदि सब एकत्र ही करते रहेगें तो औरों को मिलेगा कैसे ?मैं तो अपना कर्तव्य निभाता हूं | अन्य क्या करते हैं ,यह नहीं देखता | "
अति सर्वत्र वर्जयेत | मध्य मार्ग ही वरेण्य है |
अतिवाद हर द्रष्टि से हानिकारक माना गया है | बौद्ध जातक कथाओं में इस संबंध में एक कथा है | इस कथा के अनुसार -राजकुमार प्रश्रवन भगवान तथागत के पास जीवन साधना के लिये आये | भगवान तथागत आगंतुक साधक को निश्चित समय पर ही प्रबोध करते थे | यह समय हर साधक की आंतरिक स्थिति के अनुसार अलग -अलग होता था | राजकुमार प्रश्रवन को अभी प्रतीक्षा करनी थी | प्रभु की ओर से बुलावा न पाने के कारण प्रश्रवन ने अपनी मनोकल्पित विधि के अनुसार उपवास करना शुरु कर दिया | भूखे रहने एवं अस्त -व्यस्त दिनचर्या के कारण उनका स्वास्थ्य नष्ट होने लगा ,वे कई बीमारियों से घिर गये | तभी तथागत ने उन्हें बुलाया और मध्यम मार्ग का उपदेश देते हुए कहा ,"वत्स ,प्रश्रवन ,तुम तो कुशल वीणा वादक हो | बताओ वीणा से संगीत कब निकलता है ?प्रश्रवन ने उत्तर दिया ,"भगवन !जब वीणा के तार ठीक -ठीक कसे हों | यदि तार ज्यादा ढीले हुए या फिर ज्यादा कसे गये तो वीणा से संगीत की स्रष्टि नहीं हो सकती | "इस उत्तर पर तथागत मुस्कराए और कहा ,"वत्स !यही सत्य जीवन साधना के संबंध में भी है | जीवन संगीत न तो विलासिता में स्वरित होता है और न ही अति कठोरता में | इन दोनों स्थितियों में तो बस बीमारियां ही पनपती हैं | जीवन संगीत तो संयम के साज पर बजता है | संयम अति से उबरने एवं मध्यम में ठहरने का नाम है |

21 February 2013

सेवा और सज्जनता ईश्वर भक्ति का ही श्रेष्ठतम रुप है |
राजा भोज ने सभासदों से सवाल किया -"सज्जनता बड़ी है या ईश्वर भक्ति | "अनेको दिन विचार मंथन के बाद भी निर्णय नहीं हो सका | कई दिन बीतने पर एक दिन राजा भोज वन भ्रमण के लिये निकले | दुर्भाग्य से मार्ग में वन्य जातियों ने उनपर आक्रमण कर दिया | आक्रमण के कारण उनका शेष सहयोगियों से संबंध टूट गया | वे वन में भटक गये | जंगल में प्यास के कारण उनका दम घुटने लगा | लेकिन दूर -दूर तक कहीं पानी दिखाई नहीं दे रहा था किसी तरह वे साधु की पर्णकुटी तक पहुंचे | साधु ध्यानस्थ थे | पहुंचते ही महाराज बेहोश होकर गिर पड़े | गिरते -गिरते उन्होंने पानी के लिये पुकार लगाई | कुछ समय बाद जब राजा को होश आया तो उन्होंने देखा वही संत उनका मुंह धो रहे हैं ,पंखा झल रहे हैं और पानी पिला रहे हैं | आश्चर्य चकित होकर राजा ने पूछा -आपने मेरे लिये ध्यान क्यों भंग किया ?उपासना क्यों बंद की ?संत मधुर स्वर में बोले ,वत्स !परमात्मा की इच्छा है कि उनके संसार में कोई दुखी न हो | उनकी इच्छा पूर्ति का महत्व अधिक है | निस्वार्थ भाव से की गई सेवा से ईश्वर प्रसन्न होते हैं | सेवा और परोपकार ही सच्ची ईश्वर भक्ति है | राजा भोज को अपने सवाल का जवाब मिल गया |
सत्कर्म ही अमर रहता है | धर्म किये धन न घटे |
गुजरात और महाराष्ट्र में मुगल काल के अंतिम समय में भीषण अकाल पड़ा | सड़क और रास्ते मुर्दों के शरीरों से बंद हो गये थे | जनता अन्न के एक -एक दाने के लिये तरसने लगी थी | ऐसे में वीरजी सेठ ने अपनी तमाम पूंजी भूख से तड़पकर मरते हुए लोगों को जीवित रखने के प्रयत्न में अन्न दान करने में लगा दी | धन की सारी तिजोरियां खाली हो गईं ,परन्तु उन्हें परम संतोष था कि धन का व्यय सत्कर्म में हुआ है | अकाल बीत चुका ,वर्षा हुई ,लोग -बाग खेती करने लगे | एक दिन सुबह के समय सेठजी प्रभु के ध्यान में मग्न थे | किसी ने उनका नाम लेकर पुकारा | सेठजी ने दरवाजा खोला तो सामने एक बनजारा गठरी लिये खड़ा था | बनजारे ने कहा -"सेठजी मुझे लंबी यात्रा पर जाना है ,मेरी ये गठरियां आप रख लीजिये ,जब मैं वापस आऊंगा तब इन्हें ले लूंगा ।"सेठ ने कहा ,"बनजारे भाई ,मैं गरीब हो चुका हूं | मेरे यहां पर माल रखना ठीक नहीं है | "किन्तु बनजारे ने बात अनसुनी कर दी और गठरियां रखकर चुपचाप चला गया | सेठजी धर्म संकट में पड़ गये | गठरियां गिनवाते हुए उनकी नजर एक गठरी पर चिपकी हुई एक चिठ्ठी पर पड़ी उसमे लिखा था -"सेठजी !आपने धन का मोह छोड़कर अपनी सारी पूंजी अन्न दान में लगा दी | मैं बहुत खुश हूं | मैं वही हूं जिसका तुम ध्यान कर रहे थे और ये अपार धन -सम्पति से भरी गठरियां ,सब तुम्हारी हैं | ,इन्हें स्वीकार करना | बनजारे का पत्र पढ़कर सेठ की आँखों से आँसू बहने लगे | वे बनजारे के पीछे भागे | अब वह कहां मिलता किन्तु भगवान तो अपना काम कर चुके थे |

20 February 2013

एक धनपति था | वह नित्य ही एक घी का दीपक जलाकर मंदिर में रख आता था | एक निर्धन व्यक्ति था | वह सरसों के तेल का एक दीपक जलाकर नित्य अपनी अंधेरी गली में रख देता था | दोनों मरकर यमलोक पहुंचे तो धनपति को साधारण स्थिति की सुविधाएं दी गईं और निर्धन को उच्च श्रेणी की | यह व्यवस्था देखी तो धनपति ने धर्मराज से पूछा ,यह भेद क्यों ,जबकि मैं भगवान के मंदिर में दीपक जलाता था ,वह भी घी का | धर्मराज मुस्कराए ,बोले पुण्य की महता ,मूल्य के आधार पर नहीं ,कार्य की उपयोगिता के आधार पर होती है | मन्दिर तो पहले से ही प्रकाशवान था | उस निर्धन व्यक्ति ने ऐसे स्थान पर प्रकाश फैलाया ,जिससे हजारों व्यक्तियों ने लाभ उठाया | उसके दीपक की उपयोगिता अधिक थी |
मानव जीवन की सफलता इसी में है कि हम व्यक्तिगत लाभ और सुख का विचार छोड़ कर अपनी शक्तियों का उपयोग परोपकार के लिए करें | वृक्षों में प्रतिस्पर्धा होने लगी कि कौन बड़ा होकर आसमान छू लेता है ?सबने अपना -अपना प्रयत्न किया और ऊंचाई छू लेने की प्रतिस्पर्धा में ध्यान ही नहीं रहा कि विस्तार और फैलाव भी रूक सकता है और वही हुआ | ताड़ का वृक्ष बाजी जीत गया | वह ऊँचा तो हो गया और अहंकार में गर्दन उठाये खड़ा भी रहा | | किंतु विस्तार न होने से वह किसी के उपयोग का नहीं रहा | पक्षी को छाया नहीं फल लागे अति दूर | मनुष्य यश ,धन ,पद पाकर अहंकार तो बड़ा कर सकता है किंतु ताड़ के वृक्ष की तरह उपयोगिता घटा बैठता है | प्रकृति ने यदि हमें कोई विशेष शक्ति या योग्यता दी है तो उसे परमात्मा का वरदान समझ कर उसका उपयोग लोक -कल्याण के लिये करें | ऐसा करने वाले का अमंगल कभी नहीं होता |

19 February 2013

ईरान के दार्शनिक शेख सादी से किसी जिज्ञासु ने पूछा ,"पहलवान बड़े होते हैं या धनी या परोपकारी ?"शेख सादी ने उत्तर देने से पहले प्रश्नकर्ता से एक प्रश्न पूछा -"बताओ ,हातिम के ज़माने में सबसे बड़ा पहलवान या सबसे बड़ा धनी कौन था ?"जिज्ञासु ने याद करने का बहुत प्रयत्न किया पर उसे किसी का नाम याद नहीं आया | इस पर शेख सादी ने कहा ,"देखो हातिम के परोपकार बहुत विख्यात हैं और उसकी उदारता सभी को याद है | उस समय भी पहलवान और धनवान अनेकों हुए होंगे पर किसी के काम न आने के कारण उनका नाम किसी को याद नहीं है | जिज्ञासु का समाधान हो गया | उसने समझ लिया कि बलवान ,धनवान नहीं परोपकारी बड़े होते हैं |
दूरदर्शिता वट वृक्ष की तरह है जो समयानुसार फल देता है एक राज्य का नियम था कि राजा पांच वर्ष के लिए नियुक्त होता था | इसके बाद उसे ऐसे निर्जन वन में छोड़ दिया जाता था जहां साधनों के अभाव में भूखा -प्यासा मर जाता था | बहुत से राजा इसी प्रकार मर चुके थे | एक चतुर एक बार राजगद्दी पर बैठा | उसने पता लगा लिया कि पांच वर्ष बाद उसे किस निर्जन क्षेत्र में भेजा जायेगा | उसने तुरंत यह व्यवस्था की कि उस वीरान में जलाशय बनवाये ,पेड़ -पौधे लगवाये ,प्रजा बसाई ,यातायात के साधन जुटाये | पांच वर्ष में वह निर्जन क्षेत्र इतना हरा -भरा हो गया कि वहां अनेक उद्द्योग -व्यवसाय शुरु हो गये | जब पांच वर्ष पूरे हो गये तब राजा वहां चला गया और पहले से अधिक सुख सुविधा से रहने लगा | यही है दूरदर्शिता | यदि हम वर्तमान को सत्कर्मों से सुखी बनाकर पुण्य -परमार्थ की सम्पदा जमा कर लें तो भविष्य में भी सुखी व संपन्न जीवन व्यतीत कर सकते हैं |

18 February 2013

  • जीवन एक संग्राम है जिसमे सुख और दुःख समान रुप से आते हैं ।दुःख के बाद ही सुख की अनुभूति सुखद लगती है ।दुःख के बीच ही सुख है ।शहद मधुमक्खियों के छते से निकलता है ।उन मधुमक्खियों के जहरीले डंक होते हैं ।उनके बटोरे हुए मधु को वही मनुष्य प्राप्त कर सकता है जो उनके डंकों से नहीं घबराता ।गुलाब के पौधों में खुशबूदार फूलों के साथ कांटे भी लगे रहते हैं ।उन पुष्पों के सौरभ का आनंद वही मनुष्य लेता है ,जिसे काँटों की पीड़ा सहन करने का साहस हो ।सुंदर व्याघ्र चर्म पाने की इच्छा रखने वाले को व्याघ्र से युद्ध करना पड़ता है ,मोती ढूंढने वाले को समुद्र की तली तक दौड़ लगानी पड़ती है ।वास्तव में महानता दुर्गम संकटों का आवाहन करती है और उनका निराकरण करके ही अपने अस्तित्व को सार्थक सिद्ध करती है ।

17 February 2013

 एक व्यक्ति बड़ा परेशान था ।उसे बीस लाख का घाटा हुआ तो दिल धड़कने लगा हार्ट अटैक की आशंका सताने लगी।पत्नी एक साधु के पास ले गई ।उसने साधु से कहा -"महाराज इन्हें दस लाख का फायदा हुआ है और ये व्यर्थ में परेशान हो रहे हैं \साधु बोले ,"समझ में नहीं आता कि लाभ हुआ है या नुकसान ,ये परेशान क्यों हैं ?"पत्नी बोली -"महाराज !वास्तव में इन्हें तीस लाख का लाभ इस सौदे में होना था ,पर मिले मात्र दस लाख ।बीस लाख जो नहीं मिले ,उसी पर दुखी होकर ऐसी स्थिति में आ गए हैं \साधु ने उसे समझाते  हुए कहा ,"जो कुछ भी तेरे पास है ,उसके लिए तू खुश होना सीख ,प्रसन्न होने की कला जीवन में उतार ।ज्ञान चक्षुओं के अभाव में हम परमात्मा की अपार देन को देख और समझ नहीं पाते ,सदा यही कहते रहते हैं कि हमारे पास कुछ नहीं है ।जो हमें मिला है उसका मूल्य समझे तो मालुम होगा कि वह अदभुत है \

16 February 2013

इमर्सन -"आओ हम चुप रहें ,ताकि फरिश्तों के वार्तालाप सुन सकें ।"सुप्रसिद्ध मनीषी रहती ऐडवर्ड इवरेट हेल अपनी रचना में एक छोटी बालिका के संबंध में लिखते हैं कि वह पक्षियों और वन्य जीवों के साथ खेला करती थी और बीच -बीच में पास में बने मंदिर में प्रार्थना करने के लिए जाया करती थी ।प्रार्थना करने के बाद कुछ देर बिलकुल शान्त होकर रहती वहीँ बैठी रहती ।पूछने पर कारण बताते हुए कहती कि मैं देर तक चुपचाप इसलिए बैठी रहती हूँ ताकि यह सुन सकूँ कि ईश्वर मुझसे कुछ कहना तो नहीं चाहता ।'शान्त और एकाग्र मन से ही उनसे वार्तालाप संभव है ।मौन रहकर ही अपने अन्तराल में उतरने वाले ईश्वर के दिव्य संदेशों ,को सुना समझा जा सकता है ।
जो पवित्र नहीं उदार नहीं ,उनका जप -तप निरर्थक है ।मात्र कर्मकांडों के सहारे कोई पुण्य लोक तक नहीं पहुंचता ।एक बार पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा -"भगवन !लोग इतना कर्मकांड करते हैं फिर भी उन्हें आस्था का लाभ क्यों नहीं मिलता ?"शिवजी बोले -"धार्मिक कर्मकांड होने पर भी मनुष्य जीवन में जो आडम्बर छाया हुआ है ,यही अनास्था है ।लोग धार्मिकता का दिखावा करते हैं ,उनके मन वैसे नहीं हैं ।"परीक्षा लेने दोनों धरती पर आये ।माँ पार्वती ने सुंदर साध्वी पत्नी का और शिवजी ने कोढ़ी का रुप धारण किया ।मंदिर की सीढ़ियों के समीप वे पति को लेकर बैठ गईं ।लोग दर्शन के लिए आते रहे ,कुछ पल पार्वतीजी को देखकर आगे बढ़ जाते ।शिवजी को गिने -चुने कुछ ही सिक्के मिले ।कुछ दानदाताओं ने तो संकेत भी किया कि कहां इस कोढ़ी पति के साथ बैठी हो ,इन्हें छोड़ दो ।पार्वतीजी सहन नहीं कर पाईं ।बोलीं-"प्रभु !लौट चलिए कैलाश पर ,अब इन पाखंडियों का यह कुत्सित रुप सहन नहीं होता ।"इतने में ही एक दीन -हीन भक्त आया ,पार्वतीजी के चरण छुए और बोला -"माँ आप धन्य हैं पति परायण हैं ।मैं इनके घावों को धो दूं ,आप दोनों यह सत्तू खा लें ।भक्त ने उनके घावों पर पट्टी बांधी और सत्तू थमाकर आगे बढ़ा ।तभी शिवजी ने कहा -"यही है एकमात्र भक्त जिसने निष्कपट भाव से सेवा धर्म को प्रधानता दी ।ऐसे लोग गिने -चुने हैं शेष तो धार्मिकता का दिखावा करते हैं ।शिव -पार्वती ने उस भक्त को दर्शन दिए ,वरदान दिया और कैलाश लौट गए ।

14 February 2013

मुस्कान वह चाबी है ,जो हर किसी के दिल पर लगे ताले में फिट हो जाती है ।जो मुस्कान का दीपक नहीं जला सकते ,उन्हें समूची जिंदगी अँधेरी रात की तरह डरावनी प्रतीत होती है ।
कर्तव्य ही धर्म है ।कर्तव्य धर्म को मनीषियों ने "ऋण से मुक्ति 'कहा है ।ऋण चुका दिया ,तो उसका कोई पुरस्कार नहीं ,यदि नहीं चुकाया है तो वह अपराध है और उसका दंड मिलेगा ।इसी प्रकार कर्तव्य का ठीक से पालन किया गया तो कोई प्रतिदान नहीं लेकिन कर्तव्य पालन में चूक करने पर लिया गया ऋण नहीं चुकाने की तरह ही अपराध है ।चीन का एक अमीर भेड़ पालने का धंधा करता था ।उसने दो लड़के नौकर रखे और चराने के लिए भेड़ें बांट दीं ।कुछ दिन बाद पता चला कि भेड़ें दुबली हो गईं और कुछ मर भी गईं ।जाँच करने पर पता चला कि दोनों अपने -अपने व्यसनों में लगे रहे ।एक को जुआ खेलने की आदत थी ,जब भी दांव लगता जुए में जा बैठता और भेड़ें भूखी -प्यासी कष्ट पातीं ।दूसरा लड़का पूजा पाठ का व्यसनी था ।भेड़ों पर ध्यान नहीं देता ,अपनी रूचि के काम में लगा रहता ।दोनों पकड़े गए और न्याय के लिए कन्फ़्युशियस के सामने प्रस्तुत किये गये ।दोनों के कारणों में भेद था ,पर कर्तव्य पालन की उपेक्षा करने के लिए दोनों समान रुप से दोषी थे ।न्यायधीश ने दोनों को समान रुप से दंड दिया और कहा ,"कर्तव्य भाव के बिना जो किया जाता है वह व्यसन है ,व्यसन में जुआ खेला या पूजा की ।कर्तव्य की तो उपेक्षा की ही ।उसी का दंड दिया गया है ।

11 February 2013

जीवन का आनंद किसी वस्तु या परिस्थिति में नहीं ,बल्कि जीने वाले के द्रष्टिकोण में है ।दक्षिणेश्वर के मंदिर -विस्तार (शिवालय )के निर्माण के समय तीन श्रमिक धूप में बैठे पत्थर तोड़ रहे थे ।श्री रामकृष्ण देव ने उनसे पूछा -"क्या कर रहे हो ?"एक बोला ,"अरे भाई ,पत्थर तोड़ रहा हूँ ।"उसके कहने में दुःख था और बोझ था ।भला पत्थर तोड़ना आनंद की बात कैसे हो सकती है ।वह उत्तर देकर फिर बुझे मन से पत्थर तोड़ने लगा ।तभी श्री परमहंस देव की ओर देखते हुए दूसरे श्रमिक ने कहा ,"बाबा ,यह तो रोजी रोटी है ।मैं तो बस अपनी आजीविका कमा रहा हूँ ।"उसने जो कहा ,वह भी ठीक बात थी ।वह पहले मजदूर जितना दुखी तो नहीं था ,लेकिन आनंद की कोई झलक उसकी आँखों में नहीं थी ।तीसरा श्रमिक भी पत्थर तोड़ रहा था ,पर उसके ओंठो पर गीत के स्वर फूट रहे थे -"मन भज लो आमार काली पद नील कमले ।"उसने गीत को रोककर परमहंस देव को उत्तर दिया -"बाबा ,मैं तो माँ का घर बना रहा हूँ ।"उसकी आँखों में चमक थी ,ह्रदय में जगदंबा के प्रति भक्ति हिलोर ले रही थी ।माँ का मंदिर बनाने से बढकर आनंद भला और क्या हो सकता है ।इन तीनो श्रमिकों की बात सुनकर परमहंस देव भावसमाधि में डूब गये ।आनंद अनुभव करने का द्रष्टिकोण जिसने पा लिया ,उसके जीवन में आनंद ही आनंद है ।

10 February 2013

सुख और आनन्द ऐसे इत्र हैं ,जिन्हें जितना अधिक दूसरों पर छिड्कोगे उतनी ही सुगंध आपके भीतर समायेगी ।गुलाब से मधुमक्खी बोली "तुम जानते हो कि एक -एक करके तुम्हारे सब पुष्प तोड़ लिये जाते हैं फिर भी तुम पुष्प उत्पन्न करना बंद क्यों नहीं करते ?"गुलाब ने हँसकर कहा -मनुष्य क्या करता है ,यह देखकर संसार को सुंदर बनाने के कर्तव्य से मैं क्यों गिरूँ ,बहन फूल टूटने का दुःख कम है ,दूसरों को प्रसन्नता बांटने का संतोष अधिक महत्व का है ।

8 February 2013

कर्तव्यपालन से बढ़कर कोई तप नहीं ।मधुमक्खी उड़ती -उड़ती एक फूल पर जा बैठी और मकरंद चूसने लगी ।एक तितली भी वहीँ मंडरा रही थी ।उसने पूछा -"बहन यह क्या कर रही हो ,हमें भी बताओ ।"मधुमक्खी ने कहा -"मधु इकठ्ठा कर रही हूँ ।"फिर अपने काम में जुट गई ।तितली हँसकर बोली -"बहन !तुम भी कितनी नादान हो ।छोटे से फूल में कहीं मधु रखा है ,बेकार समय और शक्ति ख़राब कर रही हो ।आओ ,हम दोनों चलकर कहीं मधु के तालाब की खोज करें ।"मधुमक्खी कुछ न बोली ,चुपचाप अपने काम में लगी रही ।तितली सारा दिन खाक छानती रही ।शाम को दोनों घर लौटीं तो मधुमक्खी के पास मधु का ढेर जमा था और तितली खाली हाथ लौट रही थी ।

7 February 2013

वास्तविकता बहुत देर तक छिपाये नहीं रखी जा सकती ।व्यक्तित्व में इतने अधिक छिद्र हैं कि उनमे से होकर गंध दूसरों तक पहुँच ही जाती है ।एक दिन एक साहूकार को शक हुआ ,उसके खजाने में कहीं खोटे सिक्के तो नहीं आ गये ।यह जांचने के लिए उसने सब सिक्के एक जगह एकत्रित किये और जाँच -पड़ताल शुरू की ।अच्छे सिक्के तिजोरी में और खराब सिक्के एक तरफ पटके जाने लगे ,तो खोटे सिक्के घबराये ।उन्होंने परस्पर विचार किया 'भाई !अब तो अपने बुरे दिन आ गये ,यह साहूकार अवश्य हम लोगों को छांट -बीनकर तुड़वा डालेगा ,कोई युक्ति निकालनी चाहिए ,जिससे इसकी नजर से बचकर तिजोरी में चले जाएँ ।एक खोटा सिक्का बड़ा चालाक था ।उसने कहा -"भाइयों !हम लोग यदि जोर से चमकने लगें ,तो यह साहूकार पहचान नहीं पायेगा और अपना काम बन जायेगा ।"बात सबको पसंद आई ।सब खोटे सिक्के बनावटी चमकने लगे और सेठ की तिजोरी में पहुँचने लगे ।खोटे सिक्के को अपनी चालाकी पर बहुत अभिमान हुआ ।गिनते -गिनते एक सिक्का जमीन पर गिर पड़ा और नीचे पत्थर से टकराया ।साहूकार चौंका -हैं ये क्या ,चमक तो अच्छी है पर आवाज कैसी थोथी है ।उसे शंका हो गई ।दुबारा उसने सब सिक्के निकाले और पटक -पटक कर उनकी जाँच शुरू की ।फिर क्या था असली सिक्के एक तरफ और नकली सिक्के एक तरफ ।खोटों की दुर्दशा देखकर एक नन्हा सा असली सिक्का हँसा और बोला -मेरे प्यारे खोटे सिक्कों !दिखावट और बनावट थोड़े समय चल सकती है ,खोटाई आखिर इसी तरह प्रकट हो जाती है ।इस लिए कमजोरियों पर गन्दगी का आवरण न डालकर उनके निष्कासन के ,स्वच्छता के प्रयासों में निरत रहना चाहिए ।
अवसर का यथोचित उपयोग ही मनुष्य जीवन की सफलता का रहस्य है ।बसंत के अंतिम दिनों में तूफानी ठंड के दिन एक घोंघा चैरी के वृक्ष पर मंथर गति से चढ़ रहा था ।पास के वृक्ष पर बैठी चिड़िया उसकी मूर्खता पर हँस रही थी ।वह उसका मजाक करते हुए बोली कि तू इतना भी नहीं जानता कि वृक्ष में कोई फल नहीं हैं ।तू व्यर्थ में ही श्रम कर रहा है ।घोंघे ने बिना रुके ही उत्तर दिया कि बहिन आप ठीक कहती हैं ,लेकिन जब तक मैं पहुचूँगा तब तक फल लग चुके होंगे ।

4 February 2013

असफलताएं खोलतीं हैं सफलताओं के द्वार ।एडिसन का कथन है -"असाधारण प्रतिभासंपन्न मात्र एक प्रतिशत जन्मजात होते हैं ।शेष निन्यानवे प्रतिशत को उनका कठिन परिश्रम और अध्यवसाय की आदत गढ़ती -ढालती एवं बनाती है ।"प्रत्येक असफलता हमें अधिक समझदार बनाती है ।असफलता मात्र एक अवसर है दुबारा बुद्धिमतापूर्ण ढंग से प्रयास करने का ।पनामा नहर की खुदाई चल रही थी ।यह कार्य संकल्प के धनी मेजर जनरल गोथाइल की देख -रेख में चल रहा था ।नहर आधी ही खुद पायी थी कि अचानक एक विशाल भूखंड टूटकर गिर पड़ा व नहर मिट्टी के मलबे से भर गई ।कई माह के कार्य की क्षति हुई ।जनरल के सहायक ने उदासी भरे हताश शब्दों में कहा -"अब क्या करें ?'गोथाइल ने दृढ स्वर से कहा -"पूरे उत्साह के साथ दोबारा खुदाई शुरु करो ।"ऐसा ही किया गया एवं सफलता प्राप्त हुई ।यदि हमारे ह्रदय में अपने लक्ष्य के प्रति अगाध श्रद्धा एवं विश्वास है और प्रत्येक असफलता को हम चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं तो हमारी सफलता उतनी ही सुनिश्चित होगी ,जितना कि लम्बी रात्रि के बाद का उगने वाला अरुणिम सूर्य ।

3 February 2013

एक बार शरीर की सभी इंद्रियों ने हड़ताल कर दी ।उनने कहा -"कमाई हम करते हैं ,हजम सारा पेट कर जाता है ।हाथ ,पाँव ,आंख नाक ,कान आदि ने यूनियन बना ली और कहा कि हम कमाएंगे और हम ही खाएंगे ,अन्यथा काम नहीं करेंगे ।पेट ने सभी को समझाया कि तुम्हारा दिया सब कुछ तुम्हीं को तो लौटा देता हूँ ,ताकि तुम सशक्त रहो ।हड़ताल मत करो ।पर यह बात किसी इंद्रिय की समझ में नहीं आई ।उनने कहा -"तुम पूंजीपति हो ।शोषण करते हो ।जब सब अंगों ने काम करना बंद कर दिया तो भोजन पेट में कैसे पहुँचता ,इसलिए पेट भूखा रह गया ।शरीर के रस सूखने लगे ।सभी अंगों की शक्ति नष्ट होने लगी ।इंद्रियां निष्क्रिय सी हो गईं ।तब मस्तिष्क ने इंद्रियों से कहा -"मूर्खों !तुम्हारा परिश्रम अकेले पेट के पास नहीं रहता ,वह लौटकर तुम्हे ही वापस मिलता है ।दूसरों की सेवा करके हम घाटे में नहीं रहते ,जितना देते हैं ,वह ब्याज सहित वापस लौट आता है ।तुम सभी अपना कर्तव्य करो ।फल तो मिलेगा ही ।'हड़ताली इंद्रियां वापस काम पर लौट आईं ।परोपकार में बुद्धिमानी है ।इसी में हमारा सहअस्तित्व है ।

2 February 2013

दूध ने पानी से कहा -"बंधु !किसी मित्र के अभाव में मुझे सूना -सूना अनुभव होता है ।आओ ,तुम्हीं को ह्रदय से लगाकर मित्र बनाऊं ।"पानी ने उत्तर दिया -"भाई !तुम्हारी बात तो मुझे बहुत अच्छी लगी ,पर यह विश्वास कैसे हो कि अग्नि परीक्षा के समय भी तुम मेरे साथ रहोगे ?दूध ने कहा -"विश्वास रखो ,ऐसा ही होगा ।"और दोनों में मित्रता हो गई ।ऐसी मित्रता कि दोनों के स्वरुप को अलग करना कठिन हो गया ।अग्नि नित्य परीक्षा लेकर पानी को जला देती है पर दूध है कि हर बार मित्र की रक्षा के लिए अपने अस्तित्व की भी चिंता न करते हुए जलने को प्रस्तुत हो जाता है ,यही है सच्ची मित्रता ।
नशा ,नाश की जड़ है ।पिता ने बहुत समझाया -"बेटा !शराब मनुष्य को बरबाद कर देती है "।पर बेटे ने एक न सुनी ,वह नियमित रूप से शराब पीता रहा ।एक दिन उसने अपने मित्र के साथ खूब शराब पी ।उसकी सारी विचार शक्ति नष्ट हो गई ।उसने मित्र से पूछा -क्यों जी !मेरी मृत्यु के बाद क्या होगा ?"होगा यह कि तुम्हारा शरीर कब्र में डाल दिया जायेगा "-साथी ने उत्तर दिया ।लड़का बोला -"अजी यह तो मुझे भी पता है ,तुम उसके बाद की बात बताओ "।मित्र ने कहा -फिर क्या होगा ,तुम्हे मिट्टी से ढक कर कब्र बना दी जाएगी ।"लड़का ठठाकर हँसा और कहने लगा -मूर्ख !इतना तो मुझे भी पता है ,तू यह बता उसके बाद क्या होगा ?मित्र ने हँसकर कहा -"बरसात होगी और पड़ोसी तुम्हें खूब रौंदेगा ।"लड़का चिल्लाया -"अच्छा तो पड़ोसी की यह हिम्मत !और लाठी लेकर दौड़ा ।पकड़ते -पकड़ते उसने पड़ोसी का सिर सीरा बना दिया ।वह तो पुलिस आ गई ,नहीं तो मारकर ही छोड़ता ।पुलिस उसे पकड़ कर ले गई और हवालात में बंद कर दिया ।सुबह उसने पिताजी को संदेश भेजा -"पिताजी !अब मैं समझ गया ,नशा सचमुच मनुष्य से वह सब करा सकता है ,जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती ।"