18 March 2024

WISDOM-------

   श्रीमद् भगवद्गीता  में  भगवान  श्रीकृष्ण  ने   कर्तव्य  कर्म  को  ही   श्रेष्ठतम  कर्म  कहा  है  l  मनुष्य  अपने  कर्तव्य  कर्म  से  तो  मुख  मोड़  सकता  है  , परन्तु  कर्मों  के  फल  से  नहीं  बच  सकता   l  यदि  किसी  कर्म  द्वारा  हम   भगवान  की   ओर बढ़ते  हैं   तो  वह  सत्कर्म  है   और  वह  हमारा  कर्तव्य  है  ,  परन्तु  जिस  कर्म  के  द्वारा  हम   पतित  होते  हैं  वह  हमारा   कर्तव्य   नहीं  हो  सकता   l    पं .  श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं ---- " देश -काल -पात्र   के  अनुसार   हमारे  कर्तव्य  बदल  जाते  हैं   और  सबसे  श्रेष्ठ  कर्म  तो  यह  है  कि  जिस  विशिष्ट  समय  पर  हमारा   जो  कर्तव्य  हो  ,  उसी  को  हम  भली -भांति  निभाएं  l   पहले  तो  हमें  जन्म  से  प्राप्त   कर्तव्य  को  करना  चाहिए   और  उसे  कर  चुकने  के  बाद  , सामाजिक  जीवन  में   हमारे  ' पद '  के  अनुसार   जो  कर्तव्य  हो  ,  उसे  संपन्न  करना  चाहिए   l  आचार्य श्री  लिखते  हैं --- ' प्रकृति  हमारे  लिए  जिस  कर्तव्य  का  चयन  करती  है  , उसका  विरोध  करना  व्यर्थ  है  l  यदि  कोई  मनुष्य  छोटा  कार्य  करे  ,  तो  उसके  कारण  वह  छोटा  नहीं  कहा  जा  सकता  l  कर्तव्य  के  मात्र  बाहरी  रूप  से  ही  मनुष्य  की  उच्चता  का  निर्णय  करना  उचित  नहीं  है  ,  देखना  तो  यह  चाहिए  कि  वह   अपना  कर्तव्य  किस  भाव  से  करता  है  l  सबसे  श्रेष्ठ  कार्य   तो  तभी  होता  है  ,  जब  उसके  पीछे   किसी  प्रकार  का  स्वार्थ  न  हो   और   उस  व्यक्ति  ने   अपना  कर्तव्य  पूर्ण  मनोयोग  के  साथ  पूर्ण  किया  हो   l  "    एक  कथा  है  ---- एक  संन्यासी  ने  कठोर  तप  किया  ,  उनके  पास  कुछ  ऐसी  शक्ति  आ  गई   कि  क्रोध   आने  पर   द्रष्टि मात्र  से   ही  वे  किसी  को  भी  भस्म  कर  सकते  थे  l  उन्हें  अपनी  शक्ति  का   बड़ा  अहंकार  हो  गया  l  ईश्वर  किसी  के  अहंकार  को  सहन  नहीं  करते  ,  उस  समय  आकाशवाणी  हुई  कि   तुमसे  भी  बड़ा  तपस्वी   अमुक  व्याध  है  l  संन्यासी  उस  व्याध  से  मिलने  गए   तो  देखा  कि  वह  व्याध  अपना  काम  लगातार  कर  रहा  है   और  जब  काम  पूरा  कर  चुका  तो  उसने   अपने  रूपये -पैसे  समेटे   और  संन्यासी  से  कहा --- " चलिए  महाराज  !  घर  चलिए  l  "   घर  पहुंचकर  व्याध  ने  उन्हें  आसन  दिया  और  कहा ---' आप  यहाँ  थोडा  ठहरिये  l  "  इतना  कहकर  वह  व्याध  अन्दर  चला  गया   l   वहां    उसने  अपने  वृद्ध  माता -पिता  को  स्नान  कराया  , भोजन  कराया   और  फिर  उन  संन्यासी  के  पास   आया   और  कहा ---' अब  बताइए  , मैं  आपकी  क्या  सेवा  कर  सकता  हूँ  ? ' संन्यासी  ने  उससे  आत्मा -परमात्मा  सम्बन्धी  प्रश्न  किए  ,  उनके  उत्तर  में  व्याध  ने  जो  उपदेश  दिया  वह  महाभारत  में  वर्णित  है  l   जब  व्याध  अपना  उपदेश  समाप्त  कर  चुका  तो  संन्यासी  को  बड़ा  आश्चर्य  हुआ   और  उन्होंने  कहा ---- "  इतने  ज्ञानी  होते  हुए  भी   आप  इतना  निन्दित  और  कुत्सित  कार्य  क्यों  करते  हैं  ? "  व्याध  ने  कहा ---- " महाराज  !  कोई  भी  कार्य  निंदित  अथवा  अपवित्र  नहीं  है  l  मैं  जन्म  से  ही  इस  परिस्थिति  में  हूँ  ,  यही  मेरा  प्रारब्धजन्य    कर्म  है  l  मेरी  इसमें  कोई  आसक्ति  नहीं  है  , कर्तव्य  होने  के  नाते   मैं  इसे  उत्तम  रूप  से  करता  हूँ  l  मैं  गृहस्थ  होने  के  नाते   अपना  कर्तव्य  करता  हूँ   और  अपने  माता -पिता  के  प्रति   अपने  कर्तव्य  को  पूर्ण  करता  हूँ  l  मैं  कोई  योग  नहीं   जानता  , संन्यासी  नहीं  हूँ , संसार  को  छोड़कर  कभी  वन  भी  नहीं  गया  ,  परन्तु  फिर  भी  आपने  मुझसे   जो  सुना  व  देखा   वह  सब   मुझे  अनासक्त  भाव  से   अपनी  अवस्था  के  अनुरूप   कर्तव्य  का  पालन  करने  से  ही  प्राप्त  हुआ  है  l "  आचार्य श्री  लिखते  हैं --- " कर्तव्य   आत्मा  को  मुक्त  कर  देने  के  लिए  शक्तिशाली  साधन  हैं  ,  इसलिए  जब  भी  हम  कोई  कार्य  करें  तो   उसे  एक  उपासना  के  रूप  में  करना  चाहिए  , कार्य  को  पूजा   समझकर  करें  l  " 

17 March 2024

WISDOM -----

   एक  साधक  जब  भी  पूजा  में  बैठता  , तभी  बुरे  विचार   उसके  मन  में  उठते  l  वह  गुरु  से  इसका  हल  पूछने  गया  l  गुरु  ने  उसे   एक  कुत्ते  की  सेवा  करने  का  आदेश  दिया  ,  दस  दिन  तक  वह   उनके  आश्रम  में  ही  ठहरा  l  शिष्य  कारण  तो  नहीं  समझ  सका  , पर  गुरु  के  आदेशानुसार  कुत्ते  की  सेवा  करने  लगा  l  दस  दिन  कुत्ते  को  साथ  रखने  से   वह  उसके  साथ  बहुत  हिल -मिल  गया  l   अब  गुरु  ने   आज्ञा    दी  कि  इसे  भगाकर  आओ  l   साधक  भगाने  जाता  ,  लेकिन  वह  कुत्ता   फिर  उसके  पीछे -पीछे  लौट  आता   l   तब  गुरु  ने  समझाया  कि  जिन  बुरे  विचारों  में   तुम  दिन  भर  डूबे  रहते  हो  ,  वे  पूजा  के  समय   तुम्हारा  साथ  क्यों  छोड़ने  लगे  ?   शिष्य  की  समझ  में  बात  आ  गई   और  उसने  दिन  भर   अच्छे  विचार  करते  रहने  की  साधना  शुरू  कर  दी  l  गुरु  ने  कहा --- ध्यान  का  अर्थ  मात्र  एकाग्रता  नहीं  ,  श्रेष्ठ  विचारों  की  तन्मयता  भी  है  l  श्रीमद् भगवद्गीता   में   भगवान  ने  कहा  है  कि  निष्काम  कर्म  से  मन  निर्मल  होता  है  ,  कर्म  कटते  हैं , जन्मों  के  पाप   धुल    जाते  हैं   और  धीरे -धीरे  एक  समय  ऐसा  आता  है  कि  बुरे  विचारों  का  आना  बंद  हो  जाता  है  l  अध्यात्म -पथ  पर  धैर्य  की  जरुरत  है  l  

16 March 2024

WISDOM ---

  पं . श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं  ---- "  यह  ज्ञान  ही  है   जो   सत्य  को  असत्य  में  गिरने  से ,  धर्म  को  अधर्म  में  परिणत  होने  से  ,  दान  को  कृपणता  में   बदलने  से ,   तप  को  भोगवादी  होने  से   और  तीर्थों  को   अपवित्रता  में  परिवर्तित  होने  से    बचाता  है   l  लेकिन  यदि  ज्ञान  ही   अपने  मार्ग  से  भ्रष्ट  हो  जाता  है   और  अविवेक  का  मार्ग  अपनाता  है   तो  - सत्य , धर्म , ज्ञान  आदि  विभूतियों  का  क्या  होगा  ?   "  आचार्य श्री  लिखते  हैं  ---- ' ज्ञानी  जब  अहंकारी  हो  जाता  है   तब  उसके  अंत: करण   से   करुणा   नष्ट  हो   जाती  है   l  उस  स्थिति  में   वह  औरों  का  मार्गदर्शन  नहीं  कर  सकता   l  ऐसी  सर्वज्ञता  का  क्या  लाभ  ?  " -------- दक्षिण  भारत  के  एक  बड़े  ही  ज्ञानी , तपस्वी  साधु  थे ---सदाशिव  ब्रह्मेन्द्र  स्वामी  l  ये  अपने  गुरु  के  आश्रम  में  वेदांत  का  अध्ययन  कर  रहे  थे  l  एक  दिन  उस आश्रम  में  एक  विद्वान्  पंडित जी  पधारे  l  आश्रम  में  प्रवेश  करते  ही  किसी  बात  पर  उनका  सदाशिव  स्वामी  से  विवाद  हो  गया  l  सदाशिव  स्वामी  ने  अपने  तर्कों  से  उन  पंडित जी  के  तर्कों  को  तहस -नहस  कर  दिया  l    वे  आगंतुक   पंडित ,     सदाशिव  स्वामी  की  विद्वता    के  सामने  पराजित  हो  गए   और  स्थिति  ऐसी  हो  गई  कि  उन  पंडित जी  को  ब्रह्मेन्द्र  स्वामी  से  क्षमा -याचना  करनी  पड़ी  l   ब्रह्मेन्द्र  स्वामी  बड़े  प्रसन्न  थे  कि  उनकी  इस  विजय  पर  गुरु  उनकी  पीठ  थपथपायेंगे  ,  लेकिन  ऐसा  हुआ  नहीं  ,  बल्कि  इसके  ठीक  विपरीत  हुआ  l   उनके  गुरु  ने  सदाशिव  ब्रह्मेन्द्र  स्वामी  को  कड़ी  फटकार  लगाईं   और  बोले ----- " सदाशिव  !  श्रेष्ठ  चिंतन  की  सार्थकता  तभी  है  ,  जब  उससे  श्रेष्ठ  चरित्र  बने   और  श्रेष्ठ  चरित्र  तभी  सार्थक  है  ,  जब  वह  श्रेष्ठ   व्यवहार  बनकर  प्रकट  हो  l  तुमने  वेदांत  का  चिन्तन  तो  किया  ,  पर  ज्ञाननिष्ठ  साधक  का  चरित्र  नहीं  गढ़  सके   और  न  ही  तुम  ज्ञाननिष्ठ  साधक  का  व्यवहार  करने  में  समर्थ  हो  पाए  ,  इसलिए  तुम्हारे   अब  तक  के  सारे  अध्ययन -चिन्तन  को  बस  धिक्कार  योग्य  ही  माना  जा  सकता  है  l "  गुरु  के  इन  वचनों  को  सुनकर  सदाशिव  स्वामी  का  अहंकार  चूर -चूर  हो  गया  l  उन्होंने  बड़े  ही  विनम्र  भाव  से  पूछा  --- " हे  गुरुदेव  !  हम  अपना  व्यक्तित्व  किस  भांति  गढ़ें  ? "  उत्तर  में  गुरुदेव  ने  कहा ----  "  तर्क -कुतर्क  से   बचो  और  मौन  रहकर   सकारात्मक  चिन्तन  , मनन  , ध्यान  से  श्रेष्ठ  चरित्र  का  निर्माण   करो  l  " 

15 March 2024

WISDOM -----

 पं . श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं ----" अहंकार  एक  भ्रम  है  , जो  व्यक्ति  के  अन्दर   तब  उत्पन्न  होता  है  जब  वह  स्वयं  को  श्रेष्ठ  और  शक्तिमान  समझने  लगता  है  l  वह  यह  मानने  लगता  है  कि  दुनिया  उसी  के  इशारे  पर  चल  रही  है  l    जब  व्यक्ति  सफल  होता  है   तब  अपने  अहंकार  के  कारण   वह  परमात्मा  को  धन्यवाद  देना  भूल  जाता  है   और  यह  सोचता  है   कि   उसी  ने  सब  कुछ  किया  है   l  वह  चाहता  है  कि  सारी  दुनिया  उसी  का  गुणगान  करे  ,  उसी  के  इशारों  पर  चले   l "  -------   दक्षिण  में  मोरोजी  पन्त  नामक  बहुत  बड़े  विद्वान्  थे  l  उनको  अपनी  विद्या  का  बहुत  अभिमान  था  l  सबको  नीचा  दिखाते  रहते  थे  l  एक  दिन  दोपहर  के  समय  वे  अपने  घर  से   स्नान  करने  के  लिए  नदी  पर  जा  रहे  थे  l  मार्ग  में  एक  पेड़  पर  दो  ब्रह्मराक्षस  बैठे  थे  l  वे  आपस  में  बातचीत  कर  रहे  थे  l  एक  ब्रह्मराक्षस  बोला  ---- " हम  दोनों  तो  इस  पेड़  की  दो  डालियों  पर  बैठे  हैं  ,  पर  यह  तीसरी  डाली  खाली  है  ,  इस  पर  बैठने  के  लिए  कौन  आएगा   ? "   दूसरा  ब्रह्मराक्षस  बोला  ---- " यह    जो  नीचे  से  जा  रहा  है   न  ,  वह  यहाँ  आकर   बैठेगा   क्योंकि  इसको  अपनी  विद्वता  का  बड़ा  अभिमान  है  l "   उन  दोनों  का  यह  संवाद  सुनकर  मोरोजी  पंत  वहीँ  रुक  गए   l  अपनी  होने  वाली  इस  दुर्गति  से   कि  प्रेतयोनि  में  जाना  होगा  , वे  बहुत  घबरा  गए   और  मन  ही  मन  संत  ज्ञानेश्वर  के  प्रति  शरणागत  होकर  बोले  ---- "  मैं  आपकी  शरण  में  हूँ  ,  आपके  सिवाय  मुझे  बचाने  वाला  कोई  नहीं  है  l "  ऐसा  सोचते  हुए  वे  आलंदी  के  लिए  चल  पड़े   और  जीवन  पर्यंत  वहीँ  रहे  l  आलंदी  वह  स्थान  है  जहाँ  संत  ज्ञानेश्वर  ने  जीवित  समाधि  ली  थी  l  संत  की  शरण  में  जाने  से  उनका  अभिमान  चला  गया    और  संत  की  कृपा  से  वे  भी  संत  बन  गए  l    आचार्य श्री  लिखते  हैं  --- जीवन  में  अहंकार  उत्पन्न  होने  से  प्रगति  के  मार्ग  अवरुद्ध  हो  जाते  हैं  l  यदि  व्यक्ति  की  चेतना  जाग्रत  हो  जाये , वह  इस  सत्य  को  समझ  ले  कि  जीवन  की  सार्थकता  अहंकार  में   और  उसके  अनुचित  पोषण  में  नहीं  है    तब  वह  ईश्वर  शरणागति , समर्पण  भाव  , विनम्रता , शालीनता   और  सद् विवेक  को  जाग्रत  कर  अपने  जीवन  को  सही  दिशा  में   ला  सकता  है  l '   

14 March 2024

WISDOM ----

  पं . श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं  ---- "  अहंकार  ज्ञान  के  सारे  द्वार  बंद  कर  देता  है  l  अहंकारी  की  प्रगति  जितनी  तीव्र   होती  है  ,  उसका  पतन  उससे  भी  अधिक  तीव्र  गति  से  होता  है  l   जीवन  में  पूर्णता  की  प्राप्ति   पात्रता  एवं  नम्रता  से  होती  है  ,  अभिमान  और  अहंकार  से  नहीं  l "                                                      ---- एक  दिन  पानी  से  भरे  कलश  पर   रखी  हुई  कटोरी  ने   घड़े  से  कहा --- " कलश  !  तुम  बड़े  उदार  हो  l  अपने  पास  आने  वाले  प्रत्येक  पात्र  को  भर  देते  हो   l  किसी  को  खाली  नहीं  जाने  देते  l "   कलश  ने  उत्तर  दिया   --- "  हाँ  !  मैं  अपने  पास  आने  वाले  प्रत्येक  पात्र  को  भर  देता  हूँ  ,  मेरे  अंतर  का  सारा  सार   दूसरों  के  लिए  है  l "    कटोरी  बोली ---- " लेकिन  मुझे  कभी  नहीं  भरते   जबकि  मैं  हर  समय  तुम्हारे  सिर  पर  ही  मौजूद   रहती  हूँ  l  "    घड़े  ने  उत्तर  दिया ---- "   इसमें  मेरा  कोई  दोष  नहीं  है  ,  दोष  तुम्हारे  अहंकार  का  है  l  तुम  अभिमान पूर्वक  मेरे  सिर  पर  चढ़ी  रहती  हो  ,  जबकि  अन्य  पात्र   मेरे  पास  आकर  झुकते   हैं   और  अपनी  पात्रता  सिद्ध  करते  हैं   l  तुम  भी  अभिमान  छोड़कर   मेरे  सिर  से  उतर  कर  विनम्र  बहो बनों  , मैं  तुम्हे  भी  भर  दूंगा  l  " 

13 March 2024

WISDOM -----

   वर्तमान समय  में   इतने  साधु , संत , समाज  सुधारक ,  कथा , प्रवचन  , सत्संग  इतना  अधिक  है  लेकिन  फिर  भी   सुधार  का  प्रतिशत  लगभग  शून्य  है  l  लोग  एक  कान  से  सुनते  हैं  और  दूसरे  कान  से  निकाल  देते  हैं  , याद  भी  रखते  हैं  तो  कही  सुनाने  के  लिए  , अपनी  छाप  छोड़ने  के  लिए  l  कमी  दोनों  तरफ  ही  है  l  आचार्य श्री  कहते  हैं  ---- ' एक  नशेड़ी  अपने  जीवन  में   सैकड़ों  नशा  करने  वालों  को  अपने  साथ  जोड़  लेता  है  l  ऐसा  इसलिए  संभव  होता  है  क्योंकि  वह  स्वयं  नशा  करता  है , फिर  दूसरों  को  भी  ऐसा  करने  के  लिए  प्रेरित  करता  है ,  वह  जो  कहता  है , वैसा  ही  करता  भी  है  l  उसकी  वाणी  और  उसका  आचरण  में  एकरूपता  होने  से   उसकी   नशे  के  लिए  प्रेरित  करने  वाली  बात  में  बल  आ  जाता  है l    लेकिन  सन्मार्ग  पर  चलने  का  , सत्य  बोलने  का  ,  किसी  का  हक  न  छीनो  , किसी  को  न  सताओ  ----ऐसा  उपदेश  देने  वाले  बहुत  हैं   लेकिन  उनकी   वाणी  और  व्यवहार  में  एकरूपता  न  होने  से   समाज  में  सुधार  नहीं    होता  है  l '     संसार  में  अच्छे  लोग  भी  बहुत  हैं , जो  अपने  आचरण  से  शिक्षा  देते  हैं   लेकिन  इतने  विशाल  संसार  में  उनकी  संख्या  बहुत  कम  है  l  प्रवचन  सुनने   भी  जो  आते  हैं ,  वे  उसे  टाइम पास  और  मनोरंजन  समझते  हैं  l    एक  कथा  है  ----- एक  संत  प्रव्रज्या  पर  निकले   और  चतुर्मास  के  दिनों  में   एक  गाँव  में  ठहर  गए  l   वहां  वे  नित्य  प्रति  व्याख्यान  देते   और  उन्हें  सुनने  के  लिए  अनेकों  गांववासी  एकत्रित  होते  थे  l  एक  भक्त  ऐसा  था  , जो  नित्य  प्रति  उनकी  सभा  में  उपस्थित  होता  और   प्रवचन  भी  सुनता  था  l  एक  दिन  उसने  संत  से  कहा --- "  महाराज  !  मैं  नित्य  आपका  प्रवचन  सुनता  हूँ  ,  फिर  भी  बदल  क्यों  नहीं  पाता  हूँ  ? "    संत  ने  उससे  पूछा  --- " वत्स  !  तुम्हारा  घर  यहाँ  से  कितनी  दूर  है  ? "  उस  व्यक्ति  ने  कहा --- " करीब  दस  कोस  दूर  l "  संत  ने  फिर  प्रश्न  किया  --- " तुम  वहां  कैसे  जाते  हो  ? "   उस  व्यक्ति  ने  उत्तर  दिया --- " महाराज  !  पैदल  जाता  हूँ  l "    संत  ने  पूछा  --- "  क्या  ऐसा  संभव  है  कि   तुम  बिना  चले , यहाँ  बैठे -बैठे  अपने  गाँव  पहुँच  जाओ   l "  वह  व्यक्ति  बोला  --- "  महाराज  !   ऐसा  कैसे  संभव  है  l   यदि  घर  जाना  है  तो  उतनी  यात्रा  तो  करनी  ही  पड़ेगी  l  "   संत  बोले  ---- " पुत्र  !  यही  तुम्हारे  प्रश्न  का  उत्तर  है  l   तुम्हे  घर  का  पता ,  वहां  जाने  का  मार्ग  सब  मालूम  है  लेकिन  जब  तक  तुम  उस  मार्ग  पर  चलोगे  नहीं  , तब  तक  घर  जाना  संभव  नहीं  होगा  l  इसी  प्रकार  तुम्हारे  पास  ज्ञान  है  ,  इसे  जीवन  में  उतारे   बिना   तुम  अच्छे  इन्सान  नहीं  बन  सकते  l   यदि  तुम्हे  स्वयं  के  भीतर  परिवर्तन  का  अनुभव  करना  है   तो  उसके  लिए  सीखी  गई  बातों  को  जीवन  में  उतारने  का  प्रयत्न  करना  होगा  l  

12 March 2024

WISDOM -----

   पं . श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं  ----  " मनुष्य  की  आत्मा  में   विवेक  का  प्रकाश  कभी  भी  पूर्णतया  नष्ट  नहीं  हो  सकता  l  इसलिए  पाप  का  पूर्ण  साम्राज्य  कभी  भी    छा    नहीं  सकेगा  l  विवेकवान  आत्माएं  अपने  समय  की   विकृतियों  से  लड़ती  ही  रहेंगी   और  बुरे  समय  में  भी  भलाई   की  ज्योति  चमकती  रहेगी  l "         लघु -कथा ----  शिष्य  ने  प्रश्न  किया  --- " गुरुदेव  !  जब   संसार  में  सभी  आदमी  एक  ही  तत्व  के   एक  से  बने  हैं  ,  तो  यह  छोटे -बड़े  का  भेदभाव  क्यों  है  ? "  गुरु  ने  उत्तर  दिया  ---- "  वत्स  !  संसार  में  छोटा -बड़ा  कोई  नहीं  ,  यह  सब  अपने -अपने  आचरण  का  खेल  है  l  जो  सज्जन  हैं  वे   बड़े  हो  जाते  हैं  ,  जबकि  नेकी  और  सज्जनता  के  अभाव   में  वही  छोटे  कहलाने   लगते  हैं  l  "    शिष्य  की  समझ  में  यह  बात  आई  नहीं  l    तब  गुरुदेव  ने  उसे  समझाया  कि   युधिष्ठिर  अपने  आचरण  के  कारण  ही  धर्मराज  कहलाए  l  जब  महाभारत  का  युद्ध  हो  रहा  था    तब  युधिष्ठिर  शाम  को  वेश  बदलकर   कहीं  जाते  थे  l  भीम  अर्जुन  आदि  की  इच्छा  हुई   कि   देखें   आखिर  वे  वेश  बदलकर   कहाँ  जाते  है  l   शाम  को  युद्ध  विराम  होने  पर  जब  युधिष्ठिर  वेश  बदलकर  निकले  तो  चारों  पांडव  छुपकर  उनके  पीछे  चल  दिए  l   उन्होंने  देखा  कि  युधिष्ठिर  युद्ध  स्थल  पहुंचे  और  वहां  घायल  पड़े  लोगों  की  सेवा  कर  रहे  हैं   l   घायल    व्यक्ति  कौरव  पक्ष  का  हो  या  पांडव  पक्ष  का  वे  बिना  किसी  भेदभाव  के  सबको  अन्न -जल    खिला -पिला  रहें  हैं  l  किसी  को   घायल  अवस्था  में  अपने  परिवार  की  चिंता  है  तो  उसे  आश्वासन  दे  रहे  हैं  l  अपने  निश्छल  प्रेम  और  करुणा  से   वे  घायलों   व  मरणासन्न  लोगों  के  कष्ट  कम  कर  रहे  हैं  , उनकी  उपस्थिति  ही  सबको  शांति  दे  रही  है  l   रात्रि  के  तीन  पहर  बीत  जाने  पर  जब  वे  लौटे   तो  अर्जुन  ने  पूछा  ---- ' आपको  छिपकर , वेश  बदलकर  आने  की  क्या   जरुरत  थी  ? "   युधिष्ठिर  ने  कहा  --- तात !   इन  घायलों  में  से  अनेक  कौरव  दल  के  हैं  ,  वे  हम से  द्वेष  रखते  हैं  l   यदि    मैं  प्रकट  होकर  उनके  पास  जाता   तो  वे  अपने  ह्रदय  की  बातें  मुझसे  न  कह  पाते   और  मैं  सेवा  के  सौभाग्य  से  वंचित  रह  जाता  l "  भीम  ने  कहा  --- "  शत्रु  के  सेवा  करना क्या  अधर्म  नहीं  है  ? "   युधिष्ठिर  ने  कहा --- "  बन्धु  !  शत्रु  मनुष्य  नहीं  पाप  और  अधर्म  होता  है  l  आत्मा   से  किसी  का  कोई  द्वेष  नहीं  होता   l  मरणासन्न  व्यक्ति   के    मृत्यु  के  कष्ट  को  यदि  हम  कुछ  कम  कर  सकें  तो  यह  हमारा  सौभाग्य  होगा  l "   नकुल  ने  कहा --- "  लेकिन  महाराज  ,  आपने  तो  सर्वत्र  यह  कह  रखा  है   कि   शाम  का  समय   आपकी  ईश्वर -उपासना  का  है  ,  इस  तरह  झूठ  बोलने  का  पाप  आपको  लगेगा  l  "  युधिष्ठिर  बोले  --- " नहीं  नकुल  !   भगवान  की  उपासना  जप , तप  और  ध्यान  से  ही  नहीं  होती  ,  कर्म  भी  उसका  उत्कृष्ट  माध्यम  है  l  यह  विराट  जगत  उन्ही  का  प्रकट  रूप  है  l  जो  दीन -दुःखी  हैं   ,  उनकी  सेवा  करना ,  जो  पिछड़े  और  दलित  हैं   उन्हें  आत्म कल्याण  का  मार्ग  दिखाना   भी  भगवान  का  ही  भजन  है  l  इस  द्रष्टि  से  मैंने  जो  किया  वह  ईश्वर  की  उपासना  ही  है  l    सत्य  और  धर्म  का  आचरण  करने  के  कारण  ही  वे  धर्मराज  कहलाए  l